कुमाऊं की लोकसंस्कृति में रचा-बसा खतड़वा| Uttarakhand News | Uttarakhand Culture | Khatarua Festival

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कुमाऊं की सांस्कृतिक धरोहर, उत्तराखंड के खूबसूरत कुमाऊं क्षेत्र के एक अनोखे और रंगीन लोकपर्व — खतड़वा की झलकियों में बताने जा रहा हूं। ये पर्व न सिर्फ प्रकृति के बदलाव का संदेश देता है, बल्कि पशुओं के उत्तम स्वास्थ्य और समृद्धि की कामना से जुड़ा हुआ है। Folk festival Khatadwa तो दोस्तो मै आपको बताने के लिए आया हूं कैसे यह त्योहार हमारे ग्रामीण जीवन और सांस्कृतिक धरोहर को संजोए हुए है, और कैसे लोग इसे अपने रीति-रिवाजों के साथ मनाते हैं। 17 सितंबर को कुमाऊँ क्षेत्र में धूमधाम मनाया गया ये त्योहार, आपको बता दूं कि ये लोकपर्व बरसात के मौसम के बाद आने वाली शरद ऋतु की शुरुआत का प्रतीक माना जाता है। कहा जाता है कि इस दिन के बाद धीरे-धीरे पहाड़ में ठंड भी शुरू हो जाती है और लोग अपने गर्म कपड़ों, रजाई वगैरह बाहर निकालने लगते हैं। दगड़ियो कुमाऊँ की धरोहर खतड़ुवा, कुमाऊँ की संस्कृति में खतड़ुवा सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि लोकजीवन की आत्मा है। जिस तरह गढ़वाल में दीपावली को सबसे बड़ा पर्व माना जाता है, ठीक वैसे ही कुमाऊँ में खतड़ुवा की गूंज हर गाँव और हर घर तक पहुँचती है। इस दिन सूर्य ढलने के साथ ही गाँव-गाँव में मशालें जलती हैं और लोकगीतों के बीच उत्सव का माहौल बन जाता है। लोग अपने-अपने खेतों से ककड़ी भी लेकर आते हैं जिससे खतडुवा का पुतला जलाकर बड़े मेलजोल से खाया जाता है। इसके बादा आता है खतडुवा पर्व का महत्व और उद्देश्य, क्या आप जानते हैं।

दरअसल ऋतु परिवर्तन के साथ ही आपसी भाईचारे को बढ़ावा देता इस त्यौहार में पशुधन की सकुशलता की प्रार्थना भी की जाती है। बरसात बीतने के बाद खेतों में नई फसल खड़ी हो जाती है और ठंडक धीरे-धीरे दस्तक देने लगती है। ये समय खासतौर पर पशुओं के लिए कठिन माना जाता है। खतड़ुवा इसी ऋतु परिवर्तन को सहज बनाने और पशुधन की सुरक्षा की कामना से जुड़ा पर्व है। पशुओं को हरी घास, गुड़ और विशेष भोजन खिलाया जाता है। गाँव वाले जलती मशालों को चारों ओर घुमाकर रोग-व्याधि से बचाव की प्रार्थना करते हैं। सामूहिक उत्सव और मेलजोल से सामाजिक एकता और भी मजबूत होती है, साथ ही आपको बताता हूं दोस्तो इस पर्व की लोक परंपराएँ और रस्मों के बारे में भी दोस्तो खतड़ुवा की शाम बच्चों और युवाओं के लिए बेहद खास होती है। पहले तो गांव में खतडुवा मनाने को उत्साहित बच्चे और युवा भरी दुपहरी से ही तैयारियों में जुट जाते थे। इसके लिए सूखी घास, लकड़ियां, खेत-खलिहानों में साफ-सफाई के बाद काटे गए कांटे को एक जगह पर एकत्रित कते थे। यूं कहें तो एक प्रकार की प्रतियोगिता होती थी कि किस ग्रुप द्वारा एकत्रित किया गया झाड़ आदि‌ सबसे अधिक ऊंचा होता है। इसके बाद शाम के समय चीड़ की लकड़ियों और छिल्कों से बनी मशालें जलाकर गलियों और खेतों में घुमाई जाती हैं। लोग जलती मशालों को अपने मवेशियों चारों ओर घुमाते हैं ताकि उनका पूरा साल स्वस्थ और सुरक्षित बीते। जिसके बाद सभी मशाले लेकर एकत्रित झाड-पात वाले स्थान पर पहुंचते और पुतला दहन की तरह इन्हें शाम को अग्नि को समर्पित करते थे। हालांकि अभी भी गांवों में ये त्यौहार इसी प्रकार मनाया जाता है लेकिन अब पहले जैसा जोश और उत्साह देखने को नहीं मिलता है। इसका सबसे बड़ा कारण पलायन और लोगों का मोबाइल टेक्नोलॉजी की दुनिया में खो जाना है।

दोस्तो इसके अलावा एक लोककथा गैड़ा सिंह और खतड़ सिंह की भी है जो इससे जुड़ी है वो भी आपको बता देता हूं। लोकपर्व खतड़ुवा से जुड़ी एक प्रचलित कथा कुमाऊँ और गढ़वाल के दो सेनापतियों पर आधारित है। कहा जाता है कि कुमाऊँ के सेनापति गैड़ा सिंह ने गढ़वाल के सेनापति खतड़ सिंह को युद्ध में पराजित किया। लोगों की इस जीत का समाचार देने के लिए कुमाऊं सैनिकों ने सूखी लकड़ियां घांस-फूस एकत्रित कर आग जलाई। उसी जीत की स्मृति में खतड़ सिंह का प्रतीकात्मक दहन कर खतड़ुवा पर्व मनाने की परंपरा शुरू हुई। हालाँकि इतिहासकार इस कथा को लोककथा ही मानते हैं और असली कारण ऋतु परिवर्तन व पशुधन सुरक्षा से जोड़ते हैं। कुछ किंवदंतियों में इस दिन को गाय की जीत के रूप में प्रदर्शित किया गया है, तो दोस्तों, ये था कुमाऊँ के लोकपर्व खतड़ुवा का अद्भुत सफर — एक त्योहार जो सिर्फ पर्व नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, हमारी परंपराओं और हमारे सामाजिक मेलजोल की जीवंत मिसाल है। खतड़ुवा हमें याद दिलाता है कि प्रकृति के साथ सामंजस्य और पशुधन की रक्षा हमारे जीवन का अहम हिस्सा है। ये त्योहार हमारे बीच एकता, भाईचारे और खुशहाली का संदेश लेकर आता है। आइए, हम सब मिलकर इस सांस्कृतिक विरासत को संजोएं और आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाएं ताकि हमारी जड़ें मजबूत बनी रहें।