जी हां दोस्तो एक तरफ प्रदेश के 25 साल के सफर पर रजत जयंती की धूम है। वहीं दूसरी ओर 25 नहीं 35 साल का इंतजार है। जब विकास के वोदों से मुकर गई सरकारें तो खुद लोगों ने उठा लिया बड़ा कदम, कहने लगे हैं लोग आखिर कब तक, अब बस पूरी खबर बताउंगा आपको। दोस्तो देवभूमि उत्तराखंड में विकास के दावों के बीच एक और सच्चाई सामने आई है जहाँ 9 किलोमीटर सड़क के लिए लोग 35 साल से इंतज़ार कर रहे हैं और दोस्तो अब लोगों का सब्र का बांध टूट चुका है और ग्रामीण भूख हड़ताल पर उतर आए हैं, वो कहते हैं कि विकास हर गांव तक पहुंचेगा लेकिन सवाल है — जब सड़क ही नहीं पहुँची, तो विकास कैसे पहुँचेगा? बल दोस्तो खबर है अहम में लोगों के साथ ऐसी ठगी होती रही, लेकिन अब लोगों ने कह दिया बस, बहुत हो गया। दोस्तो रुद्रप्रयाग: जिले के पूर्वी और पश्चिमी बांगर क्षेत्र में सड़क की मांग को लेकर ग्रामीणों का सब्र का बांध टूट चुका है। बधाणी ताल से भुनाल गांव भेडारू तक प्रस्तावित 9 किलोमीटर सड़क को लेकर क्षेत्र के ग्रामीणों ने लोक निर्माण विभाग कार्यालय में अनिश्चितकालीन आमरण अनशन शुरू कर दिया है। बीते तीन नवंबर से शुरू हुई भूख हड़ताल में बुजुर्ग ग्रामीण बैठे हुए हैं।
दोस्तो ये खबर तब निकल कर आई जब राज्य स्थापना की 25वीं वर्षगांठ पर जब पूरा प्रदेश जश्न मना रहा है, सरकारी कार्यक्रमों में दीप जले, भाषण हुए और विकास के 25 सालों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया, उसी वक्त राज्य के एक कोने में कुछ लोग भूख हड़ताल पर बैठे दिखाई दिए। दोस्तो ये वही लोग हैं जो पिछले 35 सालों से सिर्फ 9 किलोमीटर सड़क की मांग कर रहे हैं — वो सड़क जो उनके जीवन, उनके सपनों और उनके हक़ तक पहुंचने का रास्ता है। रुद्रप्रयाग विधानसभा के बांगर पट्टी क्षेत्र की — जहाँ के ग्रामीण आज भी पैदल पहाड़ चढ़कर अस्पताल पहुंचते हैं, बीमारों और गर्भवती महिलाओं को पालकी में ढोकर इलाज के लिए ले जाया जाता है। राज्य की ‘विकास यात्रा’ के बीच यह इलाका आज भी अंधेरे में है, जहाँ विकास के नाम पर सिर्फ आश्वासन मिले हैं, हकीकत में सड़क नहीं। दोस्तो जखोली ब्लॉक के पूर्वी और पश्चिमी बांगर क्षेत्र एक-दूसरे से भौगोलिक रूप से बेहद करीब हैं। अगर प्रस्तावित बधाणी ताल–भुनाल–भेडारू मोटर मार्ग बन जाए, तो दूरी महज़ 9 किलोमीटर रह जाएगी, लेकिन सड़क न होने के कारण लोगों को अब भी 84 किलोमीटर लंबा चक्कर लगाकर मयाली, पांजणा, बसुकेदार, छेनागाड़ या अगस्त्यमुनि होते हुए जाना पड़ता है।
दोस्तो 84 किलोमीटर का ये रास्ता न सिर्फ लंबा है, बल्कि पहाड़ी भूगोल के कारण बेहद कठिन और जोखिम भरा भी है। इस दूरी को तय करने में पूरा दिन लग जाता है, जिससे व्यापार, शिक्षा और स्वास्थ्य — सब पर बुरा असर पड़ता है, यहां गौर करने वाली बात ये है कि तीन दशक से ज्यादा का इंतजार सड़क की मांग 1991 में शुरू हुई थी। यानी राज्य बनने से पहले, दोस्तो तब लोगों को उम्मीद थी कि उत्तराखंड बनने के बाद विकास की रोशनी हर गांव तक पहुंचेगी बल, लेकिन यह उम्मीद आज भी धुंध में है। हर सरकार ने इस मुद्दे को सुना, जांच करवाई, और फिर मामला “वन भूमि स्वीकृति” या “प्रशासनिक प्रक्रिया” के हवाले कर दिया। दोस्तो तीन दशक से अब इस क्षेत्र की संघर्ष समिति फाइलों के साथ-साथ उम्मीदें भी ढो रही है। संघर्ष समिति की माने तो वो कहते हैं कि कई आंदोलन किए, धरने दिए, ज्ञापन दिए, लेकिन सिर्फ आश्वासन मिले। अब 35 साल बाद सब्र टूट गया है। जब तक सड़क नहीं बनती, पीछे नहीं हटेंगे। अब दोस्तो जब यहां के लोगों ने ये बना लिया है कि पीछे हटने वाले नहीं है, तो आंदोलन का सबसे मार्मिक पहलू ये है कि अब 80 वर्ष से अधिक आयु के तीन बुजुर्ग भूख हड़ताल पर बैठे हैं। यानि जब इस सड़क की मांग 35 साल पहले हुई होगी तो वो ठीक ठाक होंगे, लेकिन उनकी आंखे सड़को देखने के लिए आज तक एक टक देख रही हैं कि शायद इस बार कि शायद अब सरकार बदली है। इस बार नहीं ऐसा हुआ नहीं है इसलिए उनकी सेहत खराब है, लेकिन हिम्मत अडिग है और कहना है कि अगर हमारी पीढ़ी को सड़क नहीं मिली, तो आने वाली पीढ़ी के लिए कम से कम राह तो छोड़ जाएं।
दोस्तो यहां सरकारी अधिकारी निरीक्षण का हवाला देते हैं बल लेकिन ज़मीनी स्तर पर न तो सड़क बनी और न कोई समाधान निकला। यहां इतना जरूर हुआ की अलग अलग विभाग एक दूसरे पर इसका ठीकरा फोड़ते रहे कि आखिर लोगों को उनका हक नहीं मिल पा रहा है, लोक निर्माण विभाग के सहायक अभियंता कहते है कि सड़क का काम 2021 से विधिवत प्रक्रिया में है। मार्ग के आठ किलोमीटर हिस्से में वन भूमि आती है, और एक किलोमीटर सिविल क्षेत्र में। करीब 1,271 पेड़ मार्ग में आ रहे हैं, जिनके कटान की अनुमति एनजीटी और वन विभाग से लेनी है। पर दोस्तो सवाल उठता है — चार साल में अनुमति क्यों नहीं मिली? चार बार निरीक्षण हुआ, पर जमीन नहीं मिली। दोस्तो अब लोग पूछने लगे हैं कि अगर आप लोग 35 साल में सड़क नहीं बना सके, तो क्या हम और 35 साल जिंदा रहेंगे?” गांव वालों ने मौके पर पहुंचे अभियंता को खरी-खोटी सुनाई, और मांग की कि “उच्च अधिकारी खुद आकर हालात देखें। दोस्तो इस पूरे मामले कुछ इस तरह से भी समझिए। इस क्षेत्र की करीब 20,000 की आबादी इस सड़क की मोहताज है। सड़क न होने के कारण युवा रोज़गार के लिए पलायन कर रहे हैं। कृषि और छोटे कारोबार ठप हैं। बीमारों को अस्पताल तक पहुँचने में घंटों लगते हैं, और कई बार रास्ते में ही जान चली जाती है। ये सड़क सिर्फ एक सुविधा नहीं है, बल्कि जिंदगी और मौत के बीच की दूरी है। ग्रामीणों का कहना है — अगर सड़क होती, तो कई जानें बच जातीं दोस्तो राज्य स्थापना की 25वीं वर्षगांठ पर सरकार जब मंचों से “विकास की कहानी” सुना रही हैं, तो बांगर पट्टी का ये आंदोलन एक कड़वी सच्चाई के रूप में सामने आया है। 25 साल में सरकारें बदलीं, नारे बदले, लेकिन सड़क नहीं बदली, सरकार जहाँ राजधानी देहरादून की चमक बढ़ाने में व्यस्त है, वहीं पहाड़ों के गांव अब भी सड़क जैसी बुनियादी ज़रूरत को लेकर भूख हड़ताल पर बैठने को मजबूर हैं। यह सवाल उ ठाता है — क्या राज्य निर्माण का मकसद पूरा हुआ? क्या यही था “अपना राज्य”, जहाँ अपनी जनता को सड़कों के लिए अनशन करना पड़े?