एक परीक्षा जहां एक ही सवाल के चार जवाब सही बताए जाएं, जहाँ पेपर बनाने का निर्देश हो ‘लीक मत करना’ लेकिन असल में लीक होना आम बात हो — क्या ये सिस्टम की विफलता है या कहीं बड़ी साज़िश? नैनीताल हाईकोर्ट ने इस पूरे मसले पर कड़ा तंज़ कसते हुए आयोग को सवालों के घेरे में ला दिया है। UKSSSC Paper Leak Case बताने के लिए आयो हूं दोस्तो उस पेपर लीक की वो कहानी जिसने पूरे उत्तराखंड के युवाओं का भरोसा हिला दिया। अब हाईकोर्ट के जज ने भी माथा पकड़ लिया है और आयोग पर व्यंगात्मक टिप्पणी कर खूब सुनाई है। दोस्तो उत्तराखंड में पेपर लीक होने के बाद तमाम तरह की चीजे आपको देखने को मिल रही हूंगी, लेकिन क्या किसी ने हाईकोर्ट के उस व्यंग और उस तंज को देखा है जिसमें हाईकोर्ट ने तंजिया टिप्पणी के जरिए बड़ी बात करदी। आयोग के काम को सवालों के घेरे में ला दिया है। दगड़ियो उत्तराखण्ड की सरकारी भर्ती परीक्षाएँ — जिन पर हज़ारों परिवारों की उम्मीदें टिकी होती हैं — हाल के दिनों में सिर्फ़ अंकगणित और सामान्य ज्ञान के प्रश्नों का विषय नहीं रहीं, वे अब सार्वजनिक भरोसे का विषय बन चुकी हैं। UKSSSC (यूनियन स्टेट सब-ऑर्डिनेट सर्विस सेल) के बहु-चर्चित पेपर लीक हादसे ने सहजता से दिखा दिया कि सिर्फ़ प्रश्न-पत्र का रिसाव नहीं हुआ, बल्कि व्यवस्था पर शक की एक लंबी छाया पसर गई है। “पेपर बना लो, लेकिन लीक मत करना” यह वाक्यांश जितना व्यंग्यात्मक है, उतना ही भयावह भी। क्योंकि जब व्यवस्था ही ‘पेपर बनाकर छाप देने’ की आदत में आ जाए — जहाँ एक ओर प्रश्न तैयार होते हैं, और दूसरी ओर वही प्रश्न सोशल मीडिया पर परीक्षा शुरू होते ही वायरल — तो उसके पीछे छुपी बात सिर्फ़ तकनीकी चूक नहीं रह जाती। यह जवाबदेही और सार्वजनिक हित की एक चिठ्ठी बनकर सामने आती है।
हाइकोर्ट के जज भी अपनी हसी नहीं रोक पा रहे हैं आयोग के इस कारनामे पर वो हसते-हसते आईना दिखा रहे हैं जज साहब, अब आयोग-आयोग ठोरा लेकिन कोर्ट ने जो कहा वो गौर करने लाइक है। दोस्तो मै तो पेपर लीक पर ही बात कर रहा था, पीछले कुछ दिनों से आयोग कैसे परीक्षा कराता है बल करके लेकिन अधालत की इस कार्यवाही को सुना तो कोर्ट में जज साहब कह रहे हैं कि पेपर लीक तो बाद की बात लेकिन यहां तो पेपर बनता कैसे वो बताया जा रहा है। शायद आपने गौर ना किया हो सुनिए कैसे जज साहब कह रहे हैं कि कुछ इधर से छापा कुछ ऊधर से छापा। दोस्तो परीक्षा का उद्देश्य सही और गलत की पहचान कर योग्य उम्मीदवारों का चयन करना होता है — न कि एक ही प्रश्न के चारों उत्तरों को “सही” बताकर शुद्धता को धुँधला करना। इससे उठने वाले सवाल सिर्फ़ अकादमिक नहीं। यह पूछता है: किसके फायदे के लिए, किसकी सहमति से और किसकी नजरअंदाज़ी में ये सब हो जाता है और कैसे पेपर लीक हो जाता है। छात्र, अभिभावक और युवाओं का गुस्सा इसलिए भी काबिले-तवज्जो है क्योंकि रोज़गार के सपने पलीता खा रहे हैं।
सरकार ने मामले को गंभीरता से लेते हुए SIT का गठन किया और जांच को सेवानिवृत्त हाईकोर्ट न्यायाधीश की निगरानी में रखने की बात की गई — पर सवाल वही रहा: जब शीर्ष न्यायिक संस्थान तक की निगाह लगी भी तो क्या भ्रष्ट व्यवस्था की जड़े इतनी गहरी नहीं? दोस्तो अब नैनीताल हाईकोर्ट ने आयोग के रवैये पर गंभीर टिप्पणी की — कुछ मामलों में सख्ती से, कुछ में व्यंग्य के साथ, अदालत की तीखी टिप्पणियाँ अक्सर उस वक्त आती हैं जब प्रशासनिक तंत्र में जवाबदेही नज़र नहीं आती। न्यायालय का तंज कभी-कभी सिर्फ़ आलोचना नहीं, बल्कि चेतावनी भी होता है — कि यदि व्यवस्था में सुधार नहीं हुआ तो न्यायिक हस्तक्षेप अनिवार्य होगा, तो क्या इस पेपर लीक के मामले में कोर्ट का एक्शन देखने को मिलेगा। आयोग क्या करेगा जब कोर्ट ने नहीं परीक्षा प्रणाली को सवालों के घेरे में ला दिया और कह दिया कि ये मजाक नहीं है सच्चा है रिएलीटी है। दोस्तो सब भी को कोर्ट भर भरोसा होता है कि जब कहीं से न्याय ना मिले तो कोर्ट से मिलेगा, वो कहते हैं ना अब मैं कोर्ट में देखुंगा। कोर्ट जहां शब्दों की ताकत कमाल की होती है। जब जज बोलते हैं और माथा पकड़ते हुए प्रश्न उठाते हैं, तो वह सिर्फ़ किसी परीक्षा प्रकरण की बात नहीं कर रहे होते; वे सार्वजनिक विश्वास की बहाली की बात कर रहे होते हैं और दोस्तो आयोग के सामने जज भी कौन थे न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल, ये नाम ही काफी है। सिस्टम की रग-रग को दुरुस्त करने के लिए राकेश थपलियाल ने गैरसैंण राजधानी के मसले पर भी कहा था क्यों जनता को पागल बना रहे हो और पेपर लीक मामले में कर दिया तगड़े तरीके से व्यंग।
दोस्तो इस मामले में जांच में कुछ निजी लोगों और अधिकारियों के नाम आए — कुछ गिरफ्तारियाँ हुईं, कुछ निलंबन हुए। पर असली लड़ाई तो केवल उस शक के खिलाफ है जो पूरे सिस्टम पर मंडरा रहा है। नैनीताल हाइकोर्ट के जज थपलियाल ने आयोग को हसते-हसते जो धाया है ना अब क्या ही कहूं। इस प्रकरण से जो सबक निकलता है, वह यह है कि शिकायतों पर केवल सुधारात्मक कार्रवाई ही पर्याप्त नहीं। आवश्यक है संरचनात्मक सुधार — पेपर बनाने, ट्रांसपोर्ट करने और परीक्षा आयोजन करने के हर चरण पर कठोर मानक। ऑनलाइन-ऑफलाइन दोनों मोड्स की सुरक्षा को मजबूत करना होगा; अगर परीक्षा ऑनलाइन भी कराई जाती है तो उसकी तकनीकी सुरक्षा पर अपेक्षाकृत अलग और कड़ा नियम लागू होना चाहिए। ऑफ़लाइन पेपर के मामले में, स्टोरेज, सीमित एक्सेस, और परीक्षा केन्द्र पर सख्त निगरानी अनिवार्य है। अब दोस्तो ये मामला यह याद दिलाता है कि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे कीमती पूँजी उसका जनता का विश्वास है और यहां उसी विश्वास की जंग एक तरफ सड़क पर चल रही है जहां बेरोजगार संघ के साथ ही तमाम अभियर्थी धरना प्रदर्शन कर रहे हैं तो वहं दूसरी ओर अदालत में भी इस मामले की गूंज अब सूनाई देने लगी है। यह सिर्फ़ एक पेपर लीक की घटना नहीं रही; यह चेतावनी है कि यदि व्यवस्था सुधार न हुई तो युवाओं के सपनों के साथ खिलवाड़ जारी रहेगा। और जब अदालतें भी माथा पकड़ें और सवाल करें — तो उस आवाज़ को सुन कर कार्रवाई करना हर जिम्मेदार संस्थान की ज़रूरत बन जाती है।