गैरसैंण पर सरकार की रणनीति की खुली पोल, हरीश रावत-धामी दोनों फंसे! सामने आई असली कहानी। गैरसैंण स्तर पर क्यों इतना बडा दावा किया कि लोग कहने लगे अरे ये होता है क्या? क्या आज तक गैरसैंण पर जनता को छला जा रहा था। Monsoon Session In Gairsain सत्र के नाम पर जनता को धोखा दिया जा रहा है क्या? आज स्त्र से छल तक की कहानी लेकर आयाहूं अपने गैरसैंण की खबर सीधे आप से जुडी जो आप सोचते हैं वो बताने आया हु। अपने गैर से और गैर होते गैरसैंण की लगता है हरक सिंह रावत ने वो बात बोल दी है जो जनता के मन की बात है, वैसे ये मेरे मन में भी चल रहा था। सच कहूं तो सवाल की थे और आज भी हैं। वैसे थोडा याद करों कब से गैरसैंण में सत्र की शुरूआत हुई थी बल नहीं छल की शुरूआत हुई थी हां यहां मुझे कोई चाटुकार या जो लोग सरकारी खर्चे पर यहां सैर सपाटा कर आते हैं। वो कहेंगे या पूछेंगे की सत्र को छल क्यों कह रहा हूं तो उनको पहले ही बता देता हूं ये एआई ने बोला है छल मैने तो सत्र ही बोला था, अब हरक सिंह रावत की कोई भरोसा नहीं है कि कब कहेंदे की एआई ने कह दिया, वरना महारी सरकार ने बहुत अच्छा किया था। दोस्तो दरअसल हरकसिंह रावत की मजबूरी है। सब पर बात करूंगा और करूंगा कुछ तीखे सलवा भी तो आप लगे की आपके मन की बात को जगह दी है तो गुजारिश आप से साथ देने की दगडियो। दगडियो गैर सैंण फिर चर्चा में है बल इस बार तीन दिन का सत्र होने जा रहा है बल लेकिन रास्ते में विकास मिल रहा है बल वो रास्ता रोक दे रहा है कुछ दिन नेता विधायक मंत्री अधिकारी सडक पर सत्र चला सकते हैं। सत्र नहीं छल।
देहारादून से गैरसैण जाने वाली सकडक पर जगह बारिश की वजह से विकास भरभराकर आ राह है। लेकिन पहले गैरसेण की वेदना पर बात कर लेता हूं। मै आगे बढू एक सावल आप लोगों से भी है आपने क्या बदला देखा जब से गैरसैण में स्तर हो रहा है तब से या आये चले गए बताना जरूर। खैर दगडियो उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी गैरसैंण, एक ऐसा नाम जो राज्य आंदोलन के दौरान हर उत्तराखंडी की उम्मीदों और सपनों का प्रतीक बन गया था। यही वह धरती है जहां राजधानी की कल्पना की गई थी — विकास, आत्मनिर्भरता और क्षेत्रीय संतुलन की दृष्टि से लेकिन आज, जब उत्तराखंड विधानसभा का मानसून सत्र 19 से 22 अगस्त तक गैरसैंण में आयोजित किया जा रहा है, तो यह सवाल फिर से उठ खड़ा हुआ है — क्या गैरसैंण सिर्फ एक दिखावटी परंपरा बनकर रह गया है? क्योंकि ये हरिक सिंह रावत का बयान हो सियासी ससकता है। लेकिन मेरे की बात हरक सिंह रावत बोल ही गए। वैसे ये नई कहानी नहीं है हर बार कि है लेकिन फिर भी सरकार ने मानसून सत्र की अवधि सिर्फ तीन दिन तय की है। ये वही गैरसैंण है, जिसे राजधानी बनाने की घोषणा कर राज्य सरकारों ने अपनी पीठ थपथपाई थी। लेकिन वास्तविकता यह है कि यहां सत्र केवल औपचारिकता बनकर रह गया है। विपक्ष लगातार सत्र की अवधि बढ़ाने की मांग करता आ रहा है, लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत ने इस बार उस सच को उजागर किया है, जिसे अक्सर दबा दिया जाता है। उनका कहना है जब मैं सच बोलता हूं तो बहुतों को दिक्कत होती है।
गैरसैंण में सत्र कराना जनता के साथ धोखा करना है। हरक सिंह का आरोप है कि पक्ष और विपक्ष दोनों आपस में मिलकर केवल तीन दिन में सत्र निपटा देते हैं और उसके बाद हेलीकॉप्टर का इंतजार करते हैं कि कब यहां से रवाना हों। अब दगडियो हरक सिंह रावत वो हैं कि उनके बयान का पता नहीं क्या होगा लेकिन उनका भी कुछ पता नहीं कि वो कब कहां किस पार्टी के साथ खडे हो जाएं और ये बयान इसलिए महत्पूर्ण है क्योंकि कुछ नेता ऐसे हैं जो दोनों पार्टियों में रहे हैं। तो फिर अब मजबूरी ये है कि किसे बचाएं सकिसे फंसायएं। इसी उधेडबुंद में हरक सिंह रावत जी भी फंस गए होगें। हरक सिंह रावत ने गैरसैंण में होने वाली व्यवस्थाओं की असमानता को भी उजागर किया है। उनका कहना है कि मंत्रियों और विधायकों के लिए तो विशेष इंतजाम किए जाते हैं — गाड़ियां, आवास, सुरक्षा, भोजन — सब कुछ। लेकिन वहीं दूसरी ओर कर्मचारियों, मीडियाकर्मियों और स्थानीय जनता के लिए कोई भी स्थायी व्यवस्था नहीं की जाती। दगडियों बयान को बुनियाद बनाउं और अपनी बात रखूं तो मै ये कह सकता हूं कि गैरसैंण को केवल एक “आउटडोर इवेंट” की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। राजनीतिक दल केवल दिखाने के लिए यहां सत्र बुलाते हैं, ताकि राजधानी के वादे को कागज़ पर जिंदा रखा जा सके। हां अगर यहां सत्र करने से पहाड के साथ ये छल करने से कोई बदला आया हो सियासत ला पाई हो बताऊओ दगडियो गैरसैंण उत्तराखंड आंदोलन की आत्मा है। हजारों आंदोलनकारियों ने यहां राजधानी की कल्पना को लेकर संघर्ष किया। लेकिन आज सत्र के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह इस भूमि के साथ राजनीतिक मज़ाक जैसा लगता है।तीन दिन में ना तो कोई गंभीर बहस हो पाती है, ना ही जनता की समस्याएं उठती हैं। विधायकों को जल्द से जल्द लौटने की हड़बड़ी रहती है। कई बार तो मंत्री और अफसर पहले ही हेलीकॉप्टर से वापस लौट जाते हैं। तो सवाल उठता है — अगर सत्र का मकसद ही पूरा नहीं हो रहा, तो इसे वहां बुलाने का क्या औचित्य?
दूसर मसला दगडियों ये कि गैरसैंण को राजधानी घोषित करना एक ऐतिहासिक कदम था, लेकिन उसे लागू करने के लिए जो राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए, वह कहीं नजर नहीं आत। ना तो यहां स्थायी विधानसभा भवन है, ना ही प्रशासनिक ढांचा। हर बार जब सत्र होता है, अस्थायी व्यवस्थाएं बनती हैं और तीन दिन बाद सब वापस। इस बीच लाखों की जनता यह सोचती रह जाती है कि आखिर उनकी राजधानी को राजधानी जैसा व्यवहार कब मिलेगा? दोस्तो एक और बात है वो ये कि राजनीतिक भ्रम और जन विश्वास का पुल टूट रह है। राजनीतिक दलों ने गैरसैंण को लेकर हमेशा दोहरा रवैया अपनाया है। सत्ता में रहते हुए कोई इसे गंभीरता से नहीं लेता, और विपक्ष में रहते हुए सिर्फ बयानबाज़ी होती है। लेकिन इस बीच जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ है — वह है आम उत्तराखंडी का विश्वास उसका टूटना। गैरसैंण के नाम पर बार-बार भावनाएं भुनाई जाती हैं, लेकिन जमीनी हकीकत जस की तस है। हर बार मीडिया में वही सवाल उठते हैं, हर बार जनता की उम्मीदें जगाई जाती हैं, और हर बार निराशा हाथ लगती है फिर नेता ही बोल देते हैं बदल ये छलावा है। वैसे आप लोगों को भी करना चाहए अब वक्त आ गया है जब जनता को सीधा सवाल पूछने की जरूरत है। क्या गैरसैंण सिर्फ एक प्रतीक है या वास्तविक राजधानी? क्यों नहीं यहां स्थायी विधानसभा, सचिवालय और प्रशासनिक व्यवस्था की जाती?
कब तक सत्र केवल “तीन दिन की रस्म” बनकर रहेगा? मै तो कहता हूं कि इतना खर्चा भी क्यों कर रहे हो इसे देहरादून में ही करों और छिटे मार दो गैरसैंड की तरफ पहाड की तरफ और आखिर कब तक जनभावनाओं के साथ ऐसा छल किया जाएगा? नेता कियों भूल जाते हैं कि गैरसैंण अब सिर्फ एक भूगोल नहीं, बल्कि उत्तराखंड के विश्वास और स्वाभिमान का प्रतीक बन चुका है। अगर उसे केवल तीन दिन की राजनीति में उलझा कर छोड़ दिया गया, तो आने वाली पीढ़ियां इस धोखे को कभी माफ नहीं करेंगी। आज जरूरत है कि गैरसैंण को लेकर सरकारें स्पष्ट रोडमैप प्रस्तुत करें। एक दीर्घकालिक राजधानी योजना, स्थायी बजट सत्र, विधानसभा, सचिवालय और कर्मचारियों की स्थायी तैनाती — तभी जाकर गैरसैंण एक “राजनीतिक स्टॉप” नहीं, बल्कि एक गंभीर राजधानी विकल्प बन पाएगा उत्तराखंड पूछ रहा है — क्या गैरसैंण एक सपना था या राजनीतिक धोखा और अगर यह सपना था, तो अब उसे पूरा क्यों नहीं किया जा रहा? धोखा तो हरक सिंह रावत बता ही रहे हैं हैं।