नारे नहीं दर्द की आह सुनी क्या? | Uttarakhand News | Breaking News |

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दोस्तो क्या आपने कभी किसी रैली को बिना मंच, बिना माइक, बिना नेता के बुलंद होते देखा है? क्या कभी कोई भीड़ सिर्फ़ अपने हक के लिए, अपने बच्चों की सेहत के लिए सड़कों पर उतरी है? क्या कोई आंदोलन नारेबाज़ी से नहीं, दर्द से उठा हो? आप कहेंगे ऐसे सवाल क्यों करने लगा हूं। अपना उत्तराखंड तो इन्हीं सवालों का जवाब है। फिर क्या आपने नारे नहीं दर्द की आह सुनी क्या? जिसे में सुनाने जा रहा हूं, आज में उत्तराखंड की सड़कों पर क्यों उतरी जनता और क्या आपने उस दर्द की आह सुनी क्या, जिस दर्द से करहाते अपने प्रदेश में आज लोग सड़कों पर आने को मजबूर हो गए। चौखुटिया की सड़कों पर उमड़ी वो भीड़ —जो किसी पार्टी का प्रचार नहीं, बल्कि पहाड़ की तकलीफों की चीख बनकर सामने आई। जहां हर आंख में उम्मीद थी और हर कदम में सवाल —क्या हमें इलाज की बुनियादी सुविधा भी नसीब नहीं? दगड़ियो उत्तराखंड के पहाड़ों में आज एक अनूठी अलख जागी — ऐसी रैली जिसने किसी नेता की लोकप्रियता नहीं सुधारी, लेकिन सरकार और प्रशासन को ये स्पष्ट संदेश दिया कि जनता अब चुप नहीं रहेगी। कुमाउं के चौखुटिया की सड़कों पर उतरा ये जनसैलाब, भीड़ न तो किसी आभार रैली का हिस्सा थी, न ही इसे किसी राजनेता ने संगठित किया था, ये थी उन हजारों आम लोगों की मेहनत, उनकी तकलीफ और उनके हक की मांग — कि स्वास्थ्य सुविधा अब भव्यता नहीं, जरूरती हक है।

रैली की शुरुआत रामगंगा आरती घाट से हुई, हाथों में बैनर, नारे नहीं, लेकिन दर्द छिपा हर चेहरे पर था। महिलाएं, बुजुर्ग, युवा — सब एक सुर में बोलेहमें इलाज चाहिए, सुविधा चाहिए, दोस्तो रैली मार्ग में चांदीखेत, खिरचौरा मंदिर, रावत गैराज होते हुए वह अनशन स्थल पर पहुंची। इस चौखुटिया शहर की सड़कें आज उस आवाज़ को सुन रही थीं, जिसने लंबे समय से पहाड़ों में दबा कर रखी थी। दोस्तो चौखुटिया और आसपास के इलाकों में लोग वर्षों से “रेफर-रेफर” वाली अस्पतालों की मजबूरी झेलते आए हैं — स्थानीय चिकित्सा सुविधाएं इतनी कमजोर कि मामूली बीमारी के लिए भी उन्हें 200 किमी दूर भेज दिया जाता है। दोस्तो वायरल बुखार हो, पेट दर्द हो या चोट- — यहाँ के मरीज तड़पते हैं, क्योंकि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टर नहीं, दवाएं नहीं, संसाधन नहीं और उसी का गुस्सा अप सड़क पर है और फिर, इलाज के नाम पर अक्सर उन्हें बड़े अस्पतालों में रेफर कर दिया जाता है — खर्च, समय, सड़क की दुर्गमाई, ये सब बोझ बन जाते हैं। इसलिए लोगों की मांग है — पहाड़ों में ऐसे इलाज की व्यवस्था हो, जो ताबड़तोड़ रेफरिंग से ठीक हो, जो घर के पास मुहैया हो। इस रैली की खास बात यह है कि यह किसी राजनीतिक लालच से प्रेरित नहीं थी। कोई बहुत बड़ा नेता यहाँ नहीं था, कोई सभा मंच नहीं था, लोग खुद आए — पैदल, बाइक से, बसों से — हाथों में नारों की जगह उम्मीद लिए चौखुटिया की रैली ने सरकार और प्रशासन को स्पष्ट संकेत भेजा है — चाहे कितनी भी घोषणाएं हो जाएँ, अगर बुनियादी स्वास्थ्य ज़मीनी स्तर पर नहीं पहुँचेगी, तो ये आवाज़ और गूंजेगी।

पहाड़ों में बसे लोगों के जीवन और मृत्यु के बीच स्वास्थ्य सुविधा की दूरी कम होनी चाहिए। जब जनस्वास्थ्य का आधार हिल जाए — किसी अस्पताल का उद्घाटन, किसी पब्लिकिटी कैंपेन से वह नहीं टिक सकता। दोसतो चुनौतियाँ और राह आगे की यह संघर्ष आसान नहीं होगा।पहाड़ी इलाकों में सड़कें, बिजली, संचार — ये मूलभूत बाधाएँ हैं। चिकित्सकों को भेजना, अस्पतालों को संचालित करना, दवाओं की आपूर्ति — ये महंगी और कठिन व्यवस्था है। लेकिन जब जनता सड़कों पर उतर आए, तो बदलाव अनिवार्य हो जाता है। प्रशासन को चाहिए कि आज ही इन मांगों को सुनें — प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को बेहतर करें, डॉक्टरों की नियुक्तियाँ करें, स्थानीय संसाधन बढ़ाएँ, और रेफरिंग को सीमित करें। दोस्तो चौखुटिया में ये नारेबाजी नहीं, आवाज़ है उन अनसुने अरमानों की, जो पहाड़ों के हर घर में चुपचाप दबे थे। अगर आज सरकार ने उन्हें सुना नहीं, तो कल यह आवाज़ और ज़ोर से गूंजेगी — स्वास्थ्य सेवा की मांग किसी राजनीतिक नारा नहीं, मानव अधिकार है। अल्मोड़ा के चौखुटिया में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। गांव-गांव से आए लोगों ने प्रदर्शन किया और सरकार से स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की मांग की। 14 दिनों से भूख हड़ताल जारी है, फिर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई है। व्यापारियों ने भी समर्थन में दुकानें बंद रखीं। लोगों ने चेतावनी दी है कि अगर मांगें पूरी नहीं हुईं तो आंदोलन और तेज होगा।