‘Paper Leak’ मामले में Bobby Pawar पर उठे सवाल पारदर्शिता से डर कैसा?| Uttarakhand News | UKSSSC

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‘पेपर लीक’ मामले में नया मोड़, बॉबी पंवार पर उठे सवाल. बॉबी पंवार क्या पारदर्शिता से डर कैसा है? जिस आंदोलन को बेरोज़गारी के खिलाफ युवाओं की सबसे बड़ी लड़ाई बताया गया। Uttarakhand Berojgar Sangh अब उसी आंदोलन के नेतृत्व पर उठने लगे हैं गंभीर सवाल, क्या युवाओं का भविष्य संवारने चला आंदोलन, किसी की राजनीति की सीढ़ी बन गया? हाईकोर्ट में जनहित याचिका और ‘आज़ादी’ जैसे नारों के बीच अब बवाल है पारदर्शिता को लेकर सवाल बड़ा है — ये संघर्ष युवाओं का है या किसी के लिए सत्ता का शॉर्टकट, पूरी कहानी ले कर या हूं। बॉबी पंवार पर उठे सवाल, विकेश नेगी बोले— पारदर्शिता से क्यों भाग रहे हैं? इसके अलवा एक तस्वीर जो इस प्रदर्शन में देखने को मिली है वो है ‘आजादी’ के नारों से आंदोलन या राष्ट्रविरोध? इस पर होगी बात दोस्तो उत्तराखंड में बेरोज़गारों की समस्या कोई नई नहीं है, लेकिन बीते कुछ समय में इस मुद्दे ने जिस तरह राजनीतिक रंग लिया, उसने आंदोलन की पवित्रता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। एडवोकेट विकेश सिंह नेगी ने बेरोज़गार संघ के पूर्व अध्यक्ष बॉबी पंवार पर गंभीर आरोप लगाए, जिसमें युवाओं को गुमराह करना, राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करना और पारदर्शिता से भागना जैसे विषय प्रमुख हैं। यह लेख इन्हीं आरोपों, आंदोलन की विश्वसनीयता और युवाओं के हित में खड़े होते सवालों पर रोशनी डालता है।

एडवोकेट विकेश नेगी का दावा है कि उन्होंने बेरोज़गारों के हक में हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की, लेकिन जब-जब उन्होंने बॉबी पंवार से दस्तावेज़ मांगे, उन्हें कोई सहयोग नहीं मिला। उनका कहना है कि आंदोलन अब बेरोज़गारों की नहीं, बल्कि कुछ लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का मंच बन गया है। यहां दगड़ियो सवाल यह है कि अगर उद्देश्य वास्तव में पारदर्शिता और न्याय है, तो आवश्यक दस्तावेज़ साझा करने से बचा क्यों जा रहा है? क्या यह जानबूझकर किया गया पर्दा है या फिर नेतृत्व में ही कमी है? वहीं दूसरी ओर दोस्तो एक और तस्वीर इस प्रदर्शन की दिखाई दी। जहां प्रदर्शन के दौरान लगे ‘आजादी’ जैसे नारों को राष्ट्रविरोधी बताते हुए गहरी आपत्ति जताई जा रही है कि ‘आजादी’ शब्द गलत है, सवाल है कि उसका संदर्भ क्या था?क्या यह लोकतांत्रिक विरोध का तरीका था या भीड़ को भड़काने की रणनीति? ऐसे नारों से आम जनता में आंदोलन की वैधता पर शक पैदा होता है और सरकार को सख्त रवैया अपनाने का अवसर मिलता है। दोस्तो जब कोई आंदोलन जनता के हित में खड़ा होता है, तो उसका नेतृत्व पारदर्शी और जवाबदेह होना चाहिए। लेकिन यहां आरोप यह है कि बॉबी पंवार ने न तो कोई रिपोर्टिंग की, न ही दस्तावेज़ दिए। अगर सब कुछ जनहित में हो रहा है, तो साक्ष्यों से बचाव क्यों? हालांकि ये मामला पूराना बताया जा रहा है जहां बॉबी पंवार ने एक मामले में कोई भी साक्ष्य नहीं दिये।

दोस्तो ये क्या यह दर्शाता है कि आंदोलन केवल सोशल मीडिया की चमक है, या फिर युवा भावनाओं की सवारी करके राजनीतिक जमीन तैयार करने की कोशिश? दोस्तो अपने उत्तराखंड का युवा कई वर्षों से UKSSSC, VDO, PE, LT, और अन्य परीक्षाओं की अनियमितताओं से जूझ रहा है। ऐसे में जब कोई मंच तैयार होता है, तो उनसे उम्मीद की जाती है कि वे युवाओं के लिए ठोस दिशा देंगे, लेकिन अगर वही मंच केवल राजनीतिक अवसरवाद में बदल जाए, तो सबसे बड़ा नुकसान उन्हीं युवाओं को होता है — जिनका न तो आंदोलन में स्थायी स्थान होता है और न ही राजनीति में कोई लाभ, दोस्तो महत्वपूर्ण यह भी है कि पूरे आंदोलन को सिर्फ एक व्यक्ति के नाम पर खारिज नहीं किया जा सकता। सवाल यह है कि आंदोलन के अन्य चेहरों, संगठनों और रणनीतियों में संगठनात्मक पारदर्शिता और योजनात्मक स्पष्टता है या नहीं? सच यह है कि अगर नेतृत्व ईमानदार हो, तो वह आलोचना से नहीं डरता, वह उसे स्वीकारता है और सुधार करता है। लेकिन जब आलोचना से घबराकर नेतृत्व आक्रामक बयानबाज़ी करने लगे — तो आंदोलन दिशाहीन हो जाता है।

सरकार को भी यह देखना होगा कि सिर्फ आंदोलन को दबाने की नीति अपनाना दीर्घकालिक समाधान नहीं है। अगर युवाओं में असंतोष है, तो उसकी मूल वजहों पर कार्य करना होगा — समय पर भर्तियाँ, पारदर्शी प्रक्रियाएँ, और न्यायपूर्ण परिणाम। वहीं, समाज को भी यह सोचना होगा कि विरोध और अराजकता में फर्क होता है। विरोध लोकतंत्र की आत्मा है, लेकिन जब यह केवल सत्ता विरोधी नारों और निजी प्रचार में बदल जाए — तो वह आत्मा खो जाती है। दोस्तो बॉबी पंवार पर उठे सवाल आंदोलन का अंत नहीं हैं, लेकिन यह एक जागरण का क्षण ज़रूर है। युवाओं को अब यह तय करना होगा कि वे किस आंदोलन के साथ हैं — हक के, या हुकूमत के खिलाफ सिर्फ चेहरा चमकाने वाले.. विकेश नेगी के आरोपों की सत्यता जांच का विषय हो सकती है, लेकिन इससे उत्पन्न सवालों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, अगर यह आंदोलन ईमानदारी, पारदर्शिता और नीति के साथ चले, तो यह उत्तराखंड के युवाओं का भविष्य बदल सकता है। लेकिन अगर यह केवल राजनीति का प्रयोगशाला बनकर रह गया — तो सबसे ज़्यादा चोट उन्हीं युवाओं को पहुंचेगी, जिनका भरोसा हर बार किसी और के सपने के लिए इस्तेमाल होता है।