जी हां दोस्तो अपने उत्तराखंड के स्कूलों को लेकर आई ये खबर हेरान कर देने वाली है। इस खबर से जहां शिक्षा महकमें ने मौन साध लिया तो वहीं अभिभावक और बच्चे बेहद चिंतित है, कि ऐसा कैसे हो सकता है कि 90 फीसदी स्कूलों में एक ही तरफ की परेशानी और उसका कोई इलाज नहीं समाधान नहीं। पूरी खबर देखिएगा तो आप भी हेरान हो जाएंगे इस मेरी रिपोर्ट के देख कर। दोस्तो ये खबर जितनी है अहम है उतनी ही सरकारी दावों की पोल खोलने वाली भी है। अभी हाल में आपने देखा होगा दोस्तो शिक्षकों ने अपनी मांगों के लेकर देहारादून जाम किया था, मुक्यमंत्री आवास कूच किया था। उनकी तमाम मागों के बीच एक मांग भी थी कि प्रदेश के 90 फीसदी स्कूलों में मुखिया के जो पद लंबे समय से खाली हैं उन्हें जल्द भरा जाय। आगे आपको एक एक आकड़ा दिखाने जा रहा हूं। जिससे आप समझ पाएंगे कि कैसे कहा जाता है और किया क्या जाता है इसलिए इस वीडियो को अंत तक जरूर देखें। दगड़ियो उत्तराखंड की शिक्षा व्यवस्था पर आई ताज़ा जानकारी ने पूरे महकमे में हड़कंप मचा दिया है। राज्य के 90 फीसदी सरकारी स्कूल ऐसे हैं जहाँ ‘प्रधानाचार्य’ ही नहीं हैं, ना नेतृत्व, ना निगरानी और सवाल ये कि फिर बच्चों को दिशा कौन दे रहा है? एक तरफ सरकार गुणवत्ता वाली शिक्षा की बात करती है,तो दूसरी तरफ स्कूलों के संचालन की बागडोर अधूरी व्यवस्था के हवाले छोड़ दी गई है और दगड़ियो हैरानी की बात ये —कि शिक्षा विभाग पूरी तरह मौन है। ना कोई जवाब, ना कोई योजना, और ना ही कोई समयसीमा। क्या ये वही उत्तराखंड है जो शिक्षा में सुधार के बड़े-बड़े दावे करता है? या फिर हकीकत ये है कि स्कूल सिर्फ इमारतें बनकर रह गए हैं — जिनका कोई कप्तान ही नहीं? आगे आपको दिखाने जा रह हूं। ये पूरी रिपोर्ट जिसने खोली है शिक्षा तंत्र की असल तस्वीर कलई।
स्कूलों की हकीकत, विभाग की खामोशी और उन बच्चों की कहानी, जो बिना प्रधानाचार्य के, सिर्फ भरोसे के सहारे पढ़ाई कर रहे हैं। उत्तराखंड में सरकारी स्कूलों की दशा किसी से छिपी नहीं है। जर्जर भवनों से लेकर शिक्षकों की कमी और छात्रों की कम होती संख्या का मुद्दा अक्सर सामने आता रहा है, लेकिन आज बात शिक्षकों के उस दर्द की, जो छात्रों के भविष्य से भी जुड़ा हुआ हैं। यहां 90 फीसदी मुखिया विहीन विद्यालयों में शिक्षकों को ही हर मर्ज की दवा मानकर न केवल शिक्षकों के भविष्य बल्कि, छात्रों के शैक्षणिक कार्यों को दांव पर लगाया गया है। दोस्तो आपको हेरानी होगी ये जानकर कि चतुर्थ श्रेणी से लेकर प्रधानाचार्य तक के काम करने को मजबूर शिक्षक वो सुना होगा आपने ‘गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागू पाय’ दोहा बच्चों को इसी भाव के साथ पढ़ाया और समझाया भी जाता है, लेकिन उत्तराखंड में सड़कों पर उतरे शिक्षक न तो खुद को और ना ही उस भाव के साथ न्याय कर पा रहे हैं, अब जरा इस आकड़े को देखिए राजकीय शिक्षक संघ के मुताबिक में 264, टिहरी में 268 और अल्मोड़ा में 258 रिक्तियां हैं, जो सबसे अधिक संख्या है।
उत्तराखंड में माध्यमिक विद्यालयों के ऐसे हैं हालात: राजकीय शिक्षक संघ उत्तराखंड के मुताबिक, गढ़वाल मंडल में कुल 1,311 सरकारी माध्यमिक विद्यालय मौजूद हैं, जिनमें से 1,265 विद्यालयों में प्रधानाचार्य ही नहीं हैं। यानी यहां 46 विद्यालयों में ही प्रधानाचार्य के पद पर स्थायी नियुक्ति हैं। देहरादून जिले में प्रधानाचार्य के 264 पद खाली हैं। हरिद्वार में 73 पद पर प्रधानाचार्य की स्थायी नियुक्ति नहीं हुई है। टिहरी जिले में भी 268 प्रधानाचार्य के पद खाली हैं। उत्तरकाशी जिले में 120 स्कूलों को प्रधानाचार्य सरकार नहीं दे पाई है। पौड़ी जिले में 248 स्कूल मुखिया विहीन है। रुद्रप्रयाग जिले में भी 100 विद्यालयों में प्रधानाचार्य की स्थायी तैनाती नहीं हुई है। चमोली जिले में 192 स्कूल प्रधानाचार्य के बिना चल रहे हैं। इसी तरह तरह कुमाऊं मंडल में बागेश्वर जिले में 89 विद्यालय प्रधानाचार्य के बिना चल रहे हैं। नैनीताल में 150 विद्यालयों में प्रधानाचार्य नहीं है। पिथौरागढ़ में 209 विद्यालयों में प्रधानाचार्य के पद रिक्त पड़े हैं। जबकि, अल्मोड़ा में 258 स्कूलों में प्रधानाचार्य की नियुक्ति ही नहीं हुई है। चंपावत में भी 102 स्कूलों में प्रधानाचार्य के पद खाली पड़े हैं। उधम सिंह नगर के 93 स्कूल प्रधानाचार्य की स्थाई नियुक्ति को तरस रहे हैं। राजकीय शिक्षक संघ ने खाली पदों पर प्रमोशन की मांग भी कर रहे हैं। इस मामले में शिक्षक संघ ने सड़कों पर उतरकर अपनी ताकत का भी एहसास सरकार को कर दिया है। खास तौर पर शिक्षा मंत्री के लिए शिक्षकों का यह आंदोलन किसी बड़े झटके से कम नहीं रहा है, दोस्तो बात केवल विद्यालयों में प्रधानाचार्य के खाली पदों तक की ही नहीं है। बल्कि, यहां तो क्लर्क से लेकर चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी तक के पद भी भारी संख्या में खाली पड़े हैं। ऐसी स्थिति में शिक्षकों को ही इन पदों से जुड़े कामों को करना होता है या उसकी व्यवस्था करनी होती है।
शिक्षक कहते हैं जिस तरह शिक्षा विभाग की व्यवस्थाएं हैं, वैसे हालत बाकी विभागों में नहीं है, यहां तो शिक्षक को हर मर्ज की दवा मान लिया गया है। उत्तराखंड में 90 फीसदी विद्यालयों में प्रधानाचार्य नहीं होने के आंकड़ों से आगे बढ़कर राजकीय शिक्षक संघ उन आंकड़ों को भी जारी कर रहा है, जिससे यह लगता है कि शिक्षक पर शैक्षणिक कार्य के अलावा ऐसे तमाम कामों का भी बोझ है, जिसके कारण उनका बच्चों पर पढ़ाई के लिए पूरा ध्यान दे पाना करीब करीब मुश्किल ही है। अब थोड़ा और गौर कीजिएगा सरकारी विद्यालयों में क्लर्क और चतुर्थ श्रेणी के खाली पदों की भी स्थिति को देखिए। हाल में आंदोलन रत शिक्षक संघ के आंकड़ों के मुताबिक, क्लर्क के देहरादून जिले में 59 पद खाली हैं। जबकि, चतुर्थ श्रेणी के 97 पद खाली हैं। हरिद्वार में क्लर्क के 61 पद खाली हैं और चतुर्थ श्रेणी के 78 पद खाली हैं। टिहरी जिले में क्लर्क के 94 तो चतुर्थ श्रेणी के 342 पद खाली हैं। उत्तरकाशी में लिपिक के 31 तो चतुर्थ श्रेणी के 247 पद खाली हैं। पौड़ी जिले में क्लर्क के 72 तो चतुर्थ श्रेणी के 317 पद खाली हैं। रुद्रप्रयाग में लिपिक के 36 तो चतुर्थ श्रेणी के 93 पद खाली हैं। उधर, चमोली में लिपि के 57 तो चतुर्थ श्रेणी के 222 पद खाली हैं। ये तो चाकाने वाली बात है कि ना प्रधानचार्य और ना फोर्थ क्लास का कर्मचारी फिर कैसे हो रहा है कामधाम क्या जो शिक्षक आंदोलन रत हैं वो सिस्टम का शिकार बन गए। भई वो ही शिऱक्षक स्कूल की घंटी बजाए वो क्लर्क का काम लेखा-जोखा रिपोर्ट रखेगा और वो ही प्रबंधन भी संभालेगा थोड़ा कुमाउं का रुख करीए।
कुमाऊं मंडल के जिलों में बागेश्वर में 33 लिपिक के पद और चतुर्थ श्रेणी के 60 पद खाली हैं। नैनीताल में लिपिक के 62 और चतुर्थ श्रेणी के 224 पद खाली है। पिथौरागढ़ जिले में 130 लिपिक के पद और 427 चतुर्थ श्रेणी के पद खाली हैं। अल्मोड़ा में 107 लिपिक और 556 चतुर्थ श्रेणी के पद खाली है। वहीं, चंपावत में 47 पदों पर लिपिक की नियुक्ति नहीं हो पा रही है तो 133 पदों पर चतुर्थ श्रेणी के कर्मी नियुक्त नहीं किया जा सके हैं। जबकि, उधम सिंह नगर जिले में 69 लिपिक के पद और 91 चतुर्थ श्रेणी के पद खाली पड़े हैं, यह आंकड़े राजकीय शिक्ष संघ के मुताबिक है। तो दोस्तो, ये है उत्तराखंड की शिक्षा व्यवस्था का वो कड़वा सच —जहां 90 फीसदी स्कूल बिना प्रधानाचार्य के चल रहे हैं। ना मार्गदर्शन, ना मॉनिटरिंग और सबसे बड़ा नुकसान उन बच्चों को,जो सपने लेकर स्कूल आते हैं — लेकिन उन्हें नेतृत्व नहीं, लापरवाही मिलती है। आज भी कई स्कूलों में कोई ये पूछने वाला नहीं कि क्लास हो रही है या नहीं, बच्चे समझ रहे हैं या नही और शिक्षकों की जवाबदेही क्या है? सवाल सिर्फ ये नहीं है कि प्रधानाचार्य क्यों नहीं हैं, सवाल ये है कि बिना प्रधानाचार्य के स्कूल कैसे चल रहे हैं? और शिक्षा विभाग ने अब तक इस पर कार्रवाई क्यों नहीं की? सरकार भले ही नई शिक्षा नीति, स्मार्ट क्लास और टेबलेट बांटने की बात करे, लेकिन जब तक स्कूलों में नेतृत्व नहीं होगा, जवाबदेही नहीं होगी, तब तक किसी भी योजना का जमीन पर असर नहीं होगा। शिक्षा सिर्फ इमारतों से नहीं चलती — उसे दिशा देने वाले लोगों की जरूरत होती है। अब देखना ये है कि शिक्षा महकमा कब तक इस मौन को तोड़ता है और कब उत्तराखंड के स्कूलों को एक स्थायी नेतृत्व मिलता है।