वो झूले पर चढ़ी, घर लौट रही थी, मगर फिर जो हुआ उसने सबको झकझोर दिया। एक जुगाड़ ट्रॉली हादसे का कारण बन गई और फिर नदी में उसकी तलाश शुरू हो गई। दगड़ियो उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में जिंदगी अब भी जोखिम भरे झूलों और टूटी सड़कों पर टिकी है। Girl Fell Into Tons River सरकार के दावे चाहे जितने चमकदार हों, जमीनी हकीकत उतनी ही खुरदुरी और खामोश है। एक ऐसा ही दिल दहला देने वाला हादसा लेकर आया हूं दगड़ियो जिसे देख कर सुनकर आप भी कहेंगे। तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है, मगर वो आँकड़ें झूठे हैं वो दावा किताबी है, ये लाइन वैसे तो अदम गोंडवी साहब ने ऐसा कुछ कहा और लिखा। इसमें मेने थोड़ा बदलाव भी किया है ये कि जगह वो बोला है तुम्हारे वो आकड़े झूठे हैं वो दावा किताबी है, क्योंकि जिस खबर को मै बताने जा रहा हूं। वो रोंगटे खड़े कर देने वाली है दगड़ियो और तमाचा है हमारे विकास के दावो पर विकासनगर के त्यूणी गांव की एक लड़की अपने घर लौट रही थी, लेकिन वो अपने घर नहीं पहुंच पाई फिर वो कहां गई होगी बल कौन बताएगा बल वो क्यों चली गई कैसे चली गई, उसकी उम्र 16 साल थी। अपने गांव बंखवाड़ लौट रही थी, टोंस नदी पर लगे झूला गरारी से संतुलन खो बैठी और उफनती नदी में जा गिरी, झूला गरारी का मतलब आप समझ रहे है ना वो जुगाड़ु झूला जो अपने कई बार पहाड़ों में देखा होगा। लोग उसी से नदियां पार करते हैं, जिस लड़की के बारे में बता रहा हूं उसके साथ उसकी बहन भी थी, जो बेबस खड़ी बस चीखती रह गई— और देखते ही देखते बहनों के बीच मौत की लहरों ने दीवार खड़ी कर दी।
दगड़़ियो ये हादसा नहीं, सिस्टम की सड़न है इस क्षेत्र में सालों से एकमात्र नदी पार करने का विकल्प है — झूला गरारी, जुगाड़ु ट्राली जिसे देख कर ही खौफ बैठ जाए। ना कोई पुल, ना कोई वैकल्पिक व्यवस्था हर दिन स्कूली बच्चे, बुजुर्ग, महिलाएं और मजदूर इसी “मौत के झूले” से आर-पार होते हैं और जब हादसे होते हैं, तब सिस्टम के पास सिर्फ एक जवाब होता है — “SDRF को भेज दिया गया है। उस लडकी शबीना की तलाश में SDRF की टीमें जुटी रही लेकिन फिलहाल उसका कोई सुराग नहीं मिला। हर लहर अब एक सवाल बन चुकी थी — क्या उसकी जान इतनी सस्ती थी कि एक पुल तक नहीं बन सका? उधर रुद्रप्रयाग के छेनागाड़ क्षेत्र में आपदा के बाद अब तक कई लोग लापता हैं। NDRF, SDRF, DDRF और अन्य टीमें लगातार राहत और बचाव अभियान चला रही हैं। जेसीबी मशीनें दिन-रात मलबा हटा रही हैं, दुकानों के नीचे दबी ज़िंदगी की तलाश जारी है — लेकिन अब तक कोई शव तक नहीं मिला। दगड़ियो सब कुछ युद्ध स्तर पर चल रहा है — मगर मौत कब समझौता करती है? प्रशासन कहता है कि खोज और राहत कार्य युद्धस्तर पर है, पर सच्चाई यह है कि जिन परिवारों के अपने लापता हैं, उनके लिए हर बीतता घंटा एक यातना है। दोस्तो छेनागाड़ की चुप्पी में आज भी वो चीखें गूंज रही हैं, जो उस रात मलबे के नीचे दब गई थीं। हां, जेसीबी चल रही है, अधिकारी दौरे पर हैं, प्रेस नोट छप रहे हैं — मगर जिनके बच्चे अब भी लौटे नहीं, उनके लिए हर दिन आपदा का ही दूसरा नाम है।
सवाल जो अभी भी खड़े हैं — और जवाब कोई नहीं टोंस नदी पर पुल कब बनेगा? जिन इलाकों में हर साल आपदा आती है, वहां स्थायी राहत कार्य क्यों नहीं? झूला गरारी से जिंदगी दांव पर लगाने वालों के लिए राज्य क्या कर रहा है? लापता लोगों के परिवारों को कब तक सिर्फ “प्रयास जारी हैं” का जवाब मिलता रहेगा? दोस्तो 16 साल की शबीना अब शायद वापस न लौटे, और रुद्रप्रयाग के कई लोग शायद मलबे में ही हमेशा के लिए दफन हो जाएं — लेकिन ये मौतें महज़ हादसे नहीं, ये हमारे सरकारी ढांचे की लापरवाही की कब्रगाहें बन चुकी हैं। सरकार और सिस्टम से यही सवाल है क्या इन पहाड़ों में जिंदगी इतनी सस्ती है, कि जब तक कोई मर न जाए, तब तक कुछ नहीं होता? उत्तरकाशी मोरी विकासखंड के सल्ला गांव के ग्रामीण वर्षों से हस्तचलित ट्राली से आवाजाही करने को मजबूर हैं। ग्रामीणों का कहना है कि आज तक पुल और सड़क निर्माण की कार्रवाई शुरू नहीं हो पाई है, कहा कि हर समय जर्जर हो चुके ट्राली से टौंस नदी के तेज बहाव में बहने का खतरा बना रहता है।
बता दूं कि सल्ला गांव मोरी विकासखंड मुख्यालय से महज चार किमी की दूरी पर स्थित है. यह गांव ग्राम पंचायत सरास के तहत आता है और वहां पर करीब 40 परिवार निवास करते हैं। जहां लोगों को आए दिन परेशानियों का सामना करना पड़ता है। पुल और सड़क निर्माण ना होने से जान हथेली पर रखकर लोगों को ट्राली से टौंस नदी पार करनी पड़ती है। सूबे की डबल इंजन सरकार हर मंच से तमाम सुख सुविधा पहुंचाने का दावा करती है, लेकिन जब धरातल पर नजर डालते हैं तो कुछ और ही निकलकर सामने आता है। इसकी हकीकत क्या है, ये जानने के लिए पहाड़ के किसी दूरस्थ गांव जाने की जरूरत ही नहीं है। बल्कि, इसकी बानगी राजधानी देहरादून से चंद किलोमीटर दूर ही देखने को मिल जाएगी। जहां लोगों की जिंदगी एक चुनौती के साथ शुरू होती है यानी आज भी लोगों को रस्सी-ट्रॉलियों के झंझट से मुक्ति नहीं मिल पाई है, जहां एक ओर लगातार ट्रॉलियों से हादसे होते जा रहे हैं तो दूसरी ओर तंत्र इसका कोई स्थायी समाधान नहीं निकाल पाया है। जिससे ग्रामीणों को उफनती नदियों को पार करने के लिए जान जोखिम में डालनी पड़ रही है। रायपुर ब्लॉक से सटे टिहरी जिले के सकलाना क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा मुख्य धारा से कटा हुआ है। वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में यहां पर केवल एक मात्र ट्रॉली है। जिस पर सैकड़ों लोगों की आवाजाही होती है। ऐसे में ईटीवी भारत की टीम ग्राउंड जीरो पर जाकर लोगों की समस्याएं जानी, सबसे पहले ईटीवी भारत की सोंग नदी के उन दोनों किनारों के पास पहुंची। जहां टिहरी जिले की तौला काटल पंचायत के सौंदणा गांव और देहरादून के रायपुर क्षेत्र के हिलांस गांव को एक रस्सी व लोहे की कमानी के सहारे एक ट्रॉली जोड़ती है।