दीपों का त्योहार है, लेकिन हर चमक के पीछे एक कहानी छुपी है। देहरादून की कुम्हार मंडी में इस बार दीयों की रौशनी से ज़्यादा चर्चा है मिट्टी की महंगाई की। Deepawali Festival 2025 दूसरी ओर, सहस्त्रधारा का आपदाग्रस्त इलाका इस बार उम्मीद की लौ से जगमगाने वाला है—जहां आपदा से जूझ रहीं महिलाएं अब आत्मनिर्भरता की मिसाल बनकर, अपने हाथों से बनी मोमबत्तियों से पूरे शहर को रोशन करने निकली हैं। जी हां दोस्तो दीपावली, वो पर्व जो अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है। घर-आँगन में दीप जलते हैं, दिलों में उम्मीदें, लेकिन इस बार देहरादून की रोशनी कुछ अलग है, क्योंकि इन दीयों और मोमबत्तियों के पीछे सिर्फ घी या मोम नहीं, बल्कि पसीना, संघर्ष और उम्मीद भी लौ जल रही है। दो कहानियाँ—एक कुम्हार मंडी से और दूसरी सहस्त्रधारा की आपदा से—इस दिवाली को सिर्फ त्योहार नहीं, एक आंदोलन बना रही हैं।पहला मालमा देहरादून का जहां कुम्हार मंडी, दीयों की रौनक के पीछे की चिंता को बताता हूं। दोस्तो देहरादून की प्रसिद्ध कुम्हार मंडी में दीपावली की चहल-पहल जोरों पर है हर साल की तरह इस बार भी मिट्टी से बने दीयों, मूर्तियों और सजावटी सामानों की भरमार है। खरीदार आ रहे हैं, खरीदारी हो रही है, बच्चों के चेहरे चमक रहे हैं, लेकिन दुकानों के पीछे खड़े कुम्हारों की आँखों में एक अनकही सी थकान है।
दोस्तो उनका दर्द बस इतना है कि मिट्टी महंगी हो गई है, और कमाई कम मिट्टी की कीमतों ने हमें मिट्टी में मिला दिया है कुछ इसी अंदाज में लोग अब चिंता में है…पहले जहाँ 500 रुपये में एक ट्रॉली मिट्टी आ जाती थी, अब 1200 से नीचे नहीं आती। दोस्तो बाजार तो सजा है, लेकिन मुनाफा नहीं, सरकार से कोई सीधी मदद नहीं, पार्षद जरूर कहते हैं कि “रौनक बनी रहे,” लेकिन रौनक कब तक सिर्फ बातों से चलेगी? दोस्तो वोकल फॉर लोकल सिर्फ एक नारा नहीं रह गया है। उधर सहस्त्रधारा के आपदा प्रभावित इलाके में ये अब आंदोलन का रूप ले चुका है। बीते महीने आई प्राकृतिक आपदा ने इस क्षेत्र को बुरी तरह झकझोर दिया था, घर उजड़े, जीवन ठहरा, लेकिन हौसले नहीं टूटे। दगड़ियो ग्राम पंचायत धनौला, न्याय पंचायत सरोना की कुछ साधारण महिलाएं, अब असाधारण काम कर रही हैं। स्वयं सहायता समूह से जुड़ी ये महिलाएं अब अपने हाथों से आकर्षक मोमबत्तियाँ और सजावटी सामान तैयार कर रही हैं और कहती हैं कि हम चाहते हैं कि इस बार देहरादून हमारे बनाए दीपों से रोशन हो, एक महिला कहती हैं कि जो पहले सिर्फ गृहणी थीं, अब महिला उद्यमी हैं। दोस्तो ये महिलाएं सिर्फ मोमबत्तियाँ नहीं बना रहीं, अपना भविष्य गढ़ रही हैं। उनके लिए ये दिवाली सिर्फ रोशनी का नहीं, आत्मनिर्भरता का प्रतीक बन गई है।
दोसतो वहीं कुम्हारों की परेशानी हो या महिलाओं के सपनों को उड़ान देने की बात—दोनों ही जगह सरकारी योजनाएँ तो हैं, लेकिन क्रियान्वयन उतना प्रभावी नहीं, कुम्हार मंडी के कारीगरों को मिट्टी पर सब्सिडी या आसान परिवहन सुविधा नहीं मिलती। वहीं, स्वयं सहायता समूहों को मशीन, मार्केटिंग और प्रशिक्षण में अब भी सरकारी मदद की दरकार है। पार्षद और अधिकारी कहते हैं कि “हम कोशिश कर रहे हैं”, लेकिन सवाल यह है कि कब तक सिर्फ कोशिश चलती रहेगी? क्या इन लोकल प्रयासों को राष्ट्रीय स्तर पर प्रमोट करने की कोई ठोस नीति है? दोस्तो खुशी की बात ये है कि देहरादून का समाज भी बदल रहा है। लोग अब बाजार में मॉल की बनी झालरें नहीं, स्थानीय लोगों द्वारा बनाए दीये और मोमबत्तियाँ खरीद रहे हैं। सोशल मीडिया पर चल रहे कैंपेन “लोकल के लिए रोशनी” ने भी खासा ध्यान खींचा है। स्कूलों में बच्चों को सिखाया जा रहा है कि मिट्टी के दीये क्यों ज़रूरी हैं, और कैसे “वोकल फॉर लोकल” का असली मतलब समझें। दोस्तो दीपावली का असली अर्थ यही है—अंधकार में भी रोशनी की उम्मीद, और इस बार, देहरादून की कुम्हार मंडी और सहस्त्रधारा की महिलाएं, इस उम्मीद को हकीकत में बदल रही हैं। कभी मिट्टी से दीये बनाकर, तो कभी मोम से सपने गढ़कर—ये लोग वो रोशनी हैं, जिन्हें देखना और सराहना दोनों ज़रूरी है…लेकिन सवाल अब भी वहीं है—क्या सरकार सिर्फ तस्वीरें खिंचवाकर चुप बैठ जाएगी?क्या इन स्थानीय प्रयासों को दीर्घकालिक मदद मिलेगी?और सबसे बड़ा सवाल—क्या आप इस बार अपने घर की दीयों में सिर्फ तेल भरेंगे, या किसी के सपनों की लौ भी जलाएँगे? यह दीपावली सिर्फ रोशनी की नहीं, जिम्मेदारी की भी होनी चाहिए, तो दोस्तो रोशनी जलाइए, लेकिन उन हाथों की मेहनत से, जो दिन-रात इसे बनाने में लगे हैं।