क्या देहरादून में मां और नवजात के लिए अस्पताल अब सुरक्षित नहीं रहे? चार महीने की एक रिपोर्ट ने स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोल दी पोल। आंकड़े भले ही सूखे लगें, लेकिन इनके पीछे छिपी कहानियां रुला देने वाली हैं। Mother and child statistics in Uttarakhand मां की गोद में आने से पहले ही कई मासूम जिंदगी की जंग हार रहे हैं सवाल उठ रहे हैं — वजह क्या है? लापरवाही, संसाधनों की कमी या सिस्टम की चुप्पी? आज मेरी ये रिपोर्ट आपको सोचने पर मजबूर कर देगी। दोस्तो भले ही उत्तराखंड स्वास्थ्य विभाग की ओर मातृ और शिशु की मृत्यु दर कम करने के लिए कई योजनाएं चलाई जा रहीं हैं, लेकिन राजधानी में मृत्यु दर के मामलों के आंकड़े चिंतित होने को मजबूर कर दिया है। देहरादून जनपद में बीते चार महीनों में 81 जच्चा-बच्चा की मौत का चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, अप्रैल से जुलाई तक 18 गर्भवती महिलाएं और 63 नवजात शिशुओं की मौतें हुई हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं के बेहतर होने के बावजूद मृत्यु के इतने मामले सामने आए हैं। जब राजधानी का यह हाल है तो राज्य के दुर्गम क्षेत्रों में जच्चा- बच्चा के जीवन को कैसे सुरक्षित रखा जा सकेगा? इस लिए ये मेरी ये रिपोरर्ट सोचने पर मजबूर कर देती है कि ये हो क्या रहा है। दोस्तो आगे बहुत कुछ है आप बस अंत तक मेरे साथ जरुर बने रहें, दोस्तो हाल ही में देहरादून सीएमओ की अध्यक्षता में मातृ एवं शिशु मृत्यु की बैठक हुई जिसमें सामने आया कि बीते 4 महीनों में 18 गर्भवती महिलाएं और 63 नवजात शिशुओं की मौत दर्ज की गई है, देहरादून के मुख्य विकास अधिकारी ने सरकारी और निजी अस्पतालों, ब्लॉक चिकित्सा अधिकारियों, एएनएम और आशा कार्यकर्ताओं से रिपोर्ट जुटाकर और मृतकों के परिजनों से मृत्यु के कारणों की जानकारी लेकर विश्लेषण किया जाए।
दोस्तो इसे समझिए कि देहरादून की शिशु मृत्यु दर 10.4 मुख्य चिकित्सा अधिकारी कहते हैं कि देहरादून जनपद की मातृ मृत्यु दर 42 है, जबकि उत्तराखंड की 103 है। सीएमओ डॉ मनोज कुमार ने सम्बंधित अधिकारियों को निर्देश दिए कि गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं की गर्भावस्था से लेकर प्रसव और उसके बाद की मॉनीटरिंग तक किसी भी स्तर पर लापरवाही न हो, वरना कड़ी कार्रवाई की जाएगी। अब उस टॉपिक पर आता हूं कि क्या है नवजातों के मौत का कारण, दोस्तो 3 माह (अप्रैल से जुलाई तक) में 63 बच्चों की मौत दर्ज की गई, जिनमें ज्यादातर का कारण वक्त से पहले जन्म (प्रीमैच्योर बर्थ) और कम वजन होना है। देहरादून की शिशु मृत्यु दर 10.4 है, जो कि उत्तराखंड की 17 और राष्ट्रीय स्तर की 20 से कम है। दोस्तो आंकड़ों की ये फेहरिस्त सिर्फ संख्या नहीं, उन सपनों की अधूरी कहानियां हैं जो जन्म से पहले ही बुझ गईं। सवाल ये है कि जब हर साल करोड़ों रुपये स्वास्थ्य व्यवस्था पर खर्च होते हैं, तो फिर मां और नवजात की जिंदगी पर ये अनदेखी क्यों? क्या वजहें हैं जो देहरादून जैसे स्मार्ट सिटी में भी जिंदगी इतनी असुरक्षित है? अब वक्त है जवाबदेही का — क्योंकि जब सवाल जिंदगी से जुड़ा हो, तो चुप रहना भी जुर्म होता है। कहने को उत्तराखंड ‘स्वर्ग की धरती’ है, लेकिन पहाड़ों में रहने वालों के लिए ये धरती कई बार संघर्ष का मैदान बन जाती है। खासकर तब, जब बात हो स्वास्थ्य सेवाओं की। गांवों से अस्पताल मीलों दूर, रास्ते कच्चे, और एंबुलेंस का नामोनिशान तक नहीं इलाज मिल भी जाए, तो वक्त पर डॉक्टर नहीं। ऐसे में सवाल उठता है — क्या पहाड़ी इलाकों में बीमार होना एक अपराध बन गया है? क्या सिर्फ मैदानी शहरों में ही है सरकार की नजर? ये सवाल अकसर रहता है की मैदान के अस्पतालों को ही देखा जाता है आब देहरादून और उसके आसपास की ये रिपोर्ट हेरान करती है तो तो क्या माल लिया जाय यहां हालात बेहद कराब हैं। दोस्तो उत्तराखंड को स्वास्थ्य के मानचित्र पर ऊंचाई तक ले जाने की बात तो होती है लेकिन क्या हकीकत में इन ऊंचाइयों तक इलाज पहुंच रहा है?