क्यों हर बरसात में डोली उठती है, और सिस्टम चुप रहता है? दोस्तो कभी सोचा है आपने इस ओर क्या एक इंसान की जान तब तक कीमत नहीं रखती, जब तक वह किसी मंत्री या अफसर की न हो? ये सवाल में मै क्यों कर रहा हूं बल, बताने आया हूं आपको देखिएगा और समझियेगा, आपके आस-पास की ही खबर है। Woman Carry On Dandi Kandi Nainital दगड़ियों जो मेने आप से शुरूआत में पूछा कि क्या एक इंसान की जान की तब तक कीमत नहीं रहती जब तक वह किसी नेता मंत्री अधिकारि की ना हो, दोस्तो ये सवाल उत्तराखंड के नैनीताल जिले के भीमताल ब्लॉक के कसैला तोक गांव से निकला है—वहां से, जहां लोग बीमार को अस्पताल पहुंचाने के लिए अपनी जान हथेली पर लेकर उफनती नदी पार करते हैं और ये कोई एक दिन की बात नहीं है, बरसों से यही हाल है। एक वायरल वीडियो सामने आया है, जो सिर्फ एक बीमार महिला की तकलीफ नहीं दिखाता, बल्कि पूरे सिस्टम की संवेदनहीनता की गवाही देता है। वीडियो में ग्रामीण डोली में बैठी गंगा देवी को जैसे-तैसे नदी पार कराते हैं। न कोई पुल, न मोटरमार्ग। सिर्फ जानलेवा बहाव और उसे चीरती इंसानी हिम्मत, बड़े हिम्मत वाले होते है बल पहाड़ी, उत्तरखांडी लेकिन सवाल ये है कि ये हिम्मत क्यों मजबूरी बन गई है? क्या हम 2025 में भी एक सड़क के लिए तरसते लोगों को “प्राकृतिक तौर पर मजबूत पहाड़ी लोग” कहकर बहला सकते हैं? दगड़ियों सच यही है कि सरकारें आती-जाती रहीं, लेकिन इस गांव की ज़िंदगी वहीं की वहीं अटकी रही—एक उफनती नदी के इस पार। दोस्तो महज 15 मिनट का जीवन-मौत का सफर आगे पूरी खबर बताने जा रहा हूं सवाल भी करने जा रहा हूं जो लोग पहाड़ पर राजधानी और गैरसैण में तीन दिन का सत्र बता कर डेढ दिन में ही अपना बोरिया बिस्तर पैक कर उड़ जाते हैं देहरादून।
दोस्तो गांव से लेकर मोटरमार्ग तक का सफर सिर्फ 3-4 किलोमीटर है। लेकिन जब सड़क नहीं होती, तो यही दूरी एक त्रासदी बन जाती है। गंगा देवी को जो ग्रामीण कंधों पर उठाकर लाए, उन्होंने बरसात के बीच नदी पार की—डूबने का खतरा हर कदम पर मंडरा रहा था। महिला की हालत गंभीर थी, लेकिन प्राथमिक इलाज मिलने में इतना वक्त लग गया कि अब वह जीवन और मौत के बीच जूझ रही है। हां दोस्तो ये ही खबर है, ये सब क्यों हो जाता है बल अब अलग राज्य भी हो गया यहां के संसधनों पर पहाड़ का हक ठैरा बल फिर ये बुजुर्ग महिला क्यों आज जिंदगी और मौत के बीच दगड़ियों यहां आपको एक बात को समझना होगा। राजनीति और वादों का पहाड़ी खेल, दोस्तो गांव के लोग बताते हैं कि सालों से भटेलिया-अमदौ-दुदुली मोटर मार्ग की मांग कर रहे हैं। कागज़ों पर प्रस्ताव बनते हैं, फाइलें सरकती हैं, मगर जमीनी हालात नहीं बदलते। इस गांव में सड़क नहीं है, स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं, बच्चों के लिए स्कूल दूर हैं, और किसानों के उत्पाद मंडी तक नहीं पहुंच पाते… तो वो लोग भी यहां आकर एक दिन नाइट स्टे कर लें बल जो गैरसैंण सत्र के द्वार कर हंगामा कर थड़ भार कर सदन में नाइट स्टे कर रहे थे, यहां उन बीजेपी के विधायकों और सरकारी तंत्र को परिक्रमा करनी चाहिए जो गैरसैंण सत्र में विपक्ष के विरोध में सदन की परिक्रमा कर रहे थे, जहां इन गांवों में घूम लोग बल। दोस्तो ये विकास के नाम पर किसका मजाक है?शायद सरकार के लिए ये गांव सिर्फ एक “जनसंख्या” है, इंसान नहीं।
सिस्टम की चुप्पी: विकास या उपेक्षा? तमाम सवाल होगें लेकिन तस्वीर वो ही एक डोली चार कंधे डोली में एक बिहार बुजुर्ग एक बीमार गर्भवती, और कुछ नहीं, नहीं यहां एक और तस्वीर और याद आ गी है, वो भी दिखा रहा हूं, उसे भी देखिए। “ये सिस्टम नहीं, बेरहम तमाशा है!”बंगापानी तहसील के देवलेख गांव में बुज़ुर्ग की जान को पीठ पर लादकर बचाना पड़ा, क्योंकि ‘सरकार’ यहां आज तक पहुंची ही नहीं! दोस्तो पिथौरागढ़ के बंगापानी तहसील का देवलेख तोक एक बार फिर सरकार की लापरवाही का गवाह बना—और इस बार दांव पर थी 64 वर्षीय बुज़ुर्ग हरमल सिंह की जान। सुबह 10 बजे उनकी तबीयत अचानक बिगड़ी, लेकिन गांव में ज्यादातर लोग रोजगार के लिए बाहर थे। घर में सिर्फ तीन पुरुष थे—और इन्हीं तीनों ने वो किया, जो किसी भी व्यवस्था नाम की चीज़ को शर्मिंदा कर देने के लिए काफी है। 10 किलोमीटर तक मुख्य सड़क तक पहुंचाया—क्योंकि ना एंबुलेंस आ सकती थी, ना सड़क थी, ना कोई सुविधा। दोपहर 1:30 बजे, यानी 3 घंटे बाद, वे किसी तरह 100 किलोमीटर दूर जिला चिकित्सालय के लिए निकले, अब इस पीड़ा को समझना होगा, ये पहाड़ की वेदना है।
कभी किसी ने पूछा कि एक गर्भवती महिला जब समय पर अस्पताल न पहुंचने से मर जाती है, तो उसकी मौत का जिम्मेदार कौन होता है? किसे कहूं जिम्मेदार मुझे समझ नहीं आया। बहुत सोचने के बाद घूम फिर एक अगुंली इशारा मेरे खुद कि तरफ कर रही थी, वो वो वाली अगुंली थी, जिससे मै और आप वोट देते हैं बल। अब दोस्तो इस गांव के लोगों की मांग बहुत बड़ी नहीं है—सिर्फ एक मोटर मार्ग। ये सड़क उन्हें अस्पताल से जोड़ेगी, बच्चों को स्कूल तक पहुंचने देगी, और उनके खेतों का अनाज शहरों तक जाएगा।पर प्रशासन के लिए शायद ये “लोकप्रिय योजना” नहीं है, जिससे चुनाव जीता जा सके। जैसे डोली में बैठी महिला के लिए गांव वाले जान की बाज़ी लगाते हैं, वैसे ही एक बार अफसर और नेता अपनी कुर्सी से उठकर इस गांव की तरफ भी देखें।अगर एक सड़क बनती है, तो अगली बार डोली नहीं उठानी पड़ेगी। और अगली बार कोई वीडियो नहीं, बस राहत की खबर आएगी। खबर शासन प्रशासन के उन अधिकारियों को सामान्य लग सकती है जो लंबे समय से कुर्सियों में जमकर यह सोचने के आदी हो चुके हैं कि पहाड़ के लोग विषम परिस्थितियों में रहने के एक्सपर्ट हैं, इसलिए यहां विकास करने की जहमत क्यों उठाई जाए। जो अगर ऐसा नहीं तो बार बार डोली में बैठकर जिंदगी बचाने को जिंदगी दांव पर लगाती तस्वीरें सामने नहीं आती।