क्यों बुनियादी सुविधाएं नहीं चढ़ पाई पहाड़? | Uttarakhand News | Haldwani | Ranikhet | Kumaon News

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क्यों बुनियादी सुविधाएं नहीं चढ़ पाई पहाड़? ये सवाल मैं 25 साल बाद भी क्यों पूछ रहा हूं। ये बताने के लिए आया हूं। सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा — ये वो बुनियादी सुविधाएं हैं, जिनके बिना किसी भी क्षेत्र का विकास अधूरा है, लेकिन सवाल ये है कि आज़ादी के 75 साल बाद भी ये सुविधाएं पहाड़ों तक क्यों नहीं पहुँच पाईं? और उत्तराखंड के 25 साल के सफर में क्यों पहाड़ में आमरण अनशन करने को मजबूर है एक पहाड़ी, आखिर क्यों हर चुनाव में वादे तो पहाड़ों की ऊँचाई छूते हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत आज भी खाई जैसी गहरी है? दोस्तो एक ऐसी पीड़ा के साथ आया हूं आज जिससे आप अभी कहीं ना कहीं पीड़ित होंगे, प्रभावित होंगे। अगर आप प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में रहते हैं तो आपका दर्द वो ही होगा जो चखुटिया के इस व्यक्ति का है। दगड़ियो उत्तराखंड के सुदूर गांव आज भी उसी मोड़ पर खड़े हैं, जहाँ से उन्होंने सफर शुरू किया था। तो क्या सच में विकास सिर्फ मैदानों तक ही सीमित रह गया है? और अगर हाँ — तो इसका जिम्मेदार कौन? है। बताने की कोशिस करूंगा, पीड़ तो पहुत है अपने पहाड़ वालों को लेकिन सह जाते हैं बल दगड़ियो आज बुनियादी सुविधाओं के लिए गांव की तड़प साफ दिखाई दे रही है और सिस्टम की खामोशी भी आफ दिखाई दे रही है। पहाड़ के अस्पतालों की हालत किसी से छिपी नहीं है, कुमाउं की बात करूं तो यहां हर बात के लिए मरीजों को हल्द्वानी लाना पड़ता है।

दगड़ियो सवाल तो ये है कि इस पूर्व सैनिक का आमरण अनशन, ये आवाज क्या सत्ता तक पहुंचेगी गांव की पीड़ा?क्योंकि ऐसी आवाजें एक क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं को कठघेरे में खड़ा नहीं करती। चौखुटिया से उठी इस आवाज में रानीखेत का बार-बार जिक्र हो रहा है, लेकिन हेरानी की बात तो ये भी है कि अपने रानीखेत बेस अस्पताल की हालत भी खराब है। दोस्तो अपने सिस्टम की क्या बात करूं। अभी पूर्व सैनिक ने कई बार इस बात का जिक्र किया कि कब तक छोटी बड़ी बीमारे के लिए हद्वानी जाएंगे, लेकिन सिस्टम की संजीदगी देखिए। हल्दिवानी के सुशीला तिवारी अस्पताल में बन रही कैथ लैब पर बीजेपी के सांसद सवाल उठा रहें। उसके निर्माण की गुणवत्ता पर निर्माण में हो रही देरी पर। लेकिन आज में उत्तराखंड के पहाड़ी अस्पतालों का हाल बताने के लिए आया हूं, यहां नहीं मिलने वाले स्वास्थ्य सेवा पर बात कर रहा हूं। दगड़ियो उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत चिंताजनक है। राज्य के 80% डॉक्टर मैदानी इलाकों में तैनात हैं, जबकि 60% आबादी गांवों में रहती है। मैं जिलावार अस्पतालों की उपलब्धता, डॉक्टरों की संख्या और PHC/CHC की स्थिति बताने की कोशिस करता हूं। अब जरा इस चार्ट को लेखिए, थोड़ा पूराना है लेकिन हालत सुधरे नहीं है और खराब ही हुए हैं।

दगड़ियो अहम बात ये है कि उत्तराखंड के कई PHC और CHC में डॉक्टर, टेक्नीशियन और ज़रूरी दवाओं की भारी कमी है। कुछ दूरस्थ क्षेत्रों में 30 किलोमीटर दूर तक कोई प्राथमिक चिकित्सा सुविधा नहीं है। शायद ये ही पीड़ा इस पूर्व सैनिक की। इतना भर नही सुनिए स्वास्थ्य मंत्री जी इस बात को सुने मुख्यमंत्री धामी जी भी और इसे देखे भी -डॉक्टरों की भारी असमानता: अल्मोड़ा और टिहरी गढ़वाल जैसे ज़िलों में डॉक्टरों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है, जबकि रुद्रप्रयाग और बागेश्वर जैसे ज़िलों में बहुत कम डॉक्टर उपलब्ध हैं। – जनसंख्या प्रति डॉक्टर: रुद्रप्रयाग और बागेश्वर में प्रति डॉक्टर 15,000 से अधिक जनसंख्या निर्भर है, जो WHO के मानकों से कहीं अधिक है। PHC और CHC की कमी: कई जिलों में PHC और CHC की संख्या बेहद कम है, खासकर बागेश्वर, चंपावत और रुद्रप्रयाग में। पर्वतीय बनाम मैदानी असंतुलन: राज्य के अधिकांश स्वास्थ्य संसाधन मैदानी क्षेत्रों में केंद्रित हैं, जबकि पहाड़ी जिलों की उपेक्षा हो रही है। नीतिगत दिशा की जरूरत: इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि राज्य सरकार को ‘डॉक्टरों का पर्वतीय क्षेत्रों में स्थाई पदस्थापन’, ‘टेलीमेडिसिन’, और ‘मोबाइल हेल्थ यूनिट्स’ जैसे उपायों को सक्रिय रूप से लागू करना चाहिए।

दगड़ियो ऐसे में ऐसी आवाज तो हर क्षेत्र से उठेगी और लोग धरना प्रदर्शन कर अपनी बूनियादी सुविधाओं को लेकर लड़ाई लड़ेंगे। पहाड़ सिर्फ खूबसूरती की मिसाल नहीं, बल्कि वहां भी वो लोग रहते हैं, जिनके सपने, जरूरतें और अधिकार मैदानों में रहने वालों से अलग नहीं हैं, लेकिन जब बुनियादी सुविधाएं – जैसे स्वास्थ्य, सड़क और शिक्षा – अब भी वहां नहीं पहुंच पाईं, तो ये सिर्फ लापरवाही नहीं, बल्कि एक बहुत बड़ी चूक है। चौखुटिया जैसे आंदोलनों की गूंज सिर्फ एक कस्बे तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, ये एक संदेश है — कि विकास तब तक अधूरा है, जब तक उसका रास्ता हर पहाड़ी गांव से होकर न गुज़रे। सवाल अब भी खड़ा है – क्या इस बार कोई जवाब आएगा या फिर आवाज़ें एक बार फिर खामोशी में दब जाएंगी?