उत्तराखंड के 25 साल, और क्या बदल गया? वो दिग्गज नेता, जिन्हें कभी पहाड़ ने जन्म दिया, आज वही नेता पहाड़ से मुंह मोड़ चुके हैं! क्या वजह है कि इस खूबसूरत प्रदेश का पहाड़ उन्हें भाया ही नहीं? क्या उनकी नीतियों ने पहाड़ का भरोसा खो दिया, या कुछ और है इस पलायन के पीछे? आज में खोलेंगूं उत्तराखंड के राजनीतिक परिदृश्य की ये गहरी कहानी की परत। Migration of mountain leaders to the plains कैसे अपने उत्तराखंड के बीते 25 साल सिर्फ सवाल बनकर रहे गए, सब बताउंगा आपको। दोस्तो पलायन पर चिंता जताने वाले राजनेता अक्सर खुद ही पलायन का रास्ता इख्तियार कर लेते हैं। बात मैदानी जिलों में आशियाना तलाशने की हो या फिर अपने राजनीतिक सफर को आगे बढ़ाने की, हर मामले में नेताओं की करनी उनकी कथनी से इतर नजर आती है। उत्तराखंड में पलायन पर चिंता जताने वाले ऐसे ही नेताओं की भरमार है जिन्होंने पहाड़ी मूल को छोड़कर मैदानी सियासत पर भरोसा किया। दोस्तो उत्तराखंड में राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें तो एक दिलचस्प और साथ ही चुनौतीपूर्ण तस्वीर उभरती है। यह तस्वीर केवल आम जनता के पलायन तक ही सीमित नहीं, बल्कि उन्हीं नेताओं तक फैली हुई है, जो वर्षों तक इस खूबसूरत पहाड़ी प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रहे हैं। पलायन पर चिंता जताने वाले कई बड़े नेता खुद ही मैदानी जिलों की ओर रुख करते नजर आए हैं।
दरअसल, दोस्तो उत्तराखंड के नेताओं के पलायन का इतिहास उतना ही पुराना है जितना राज्य के स्थापना का, राज्य के पहले दशक से ही देखा गया कि कई दिग्गज नेता, जो पहाड़ से ताल्लुक रखते थे, राजनीतिक करियर को आगे बढ़ाने के लिए मैदानी जिलों का रुख करने लगे। इसका प्रभाव केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर भी महसूस किया गया। दोस्तो हरीश रावत और त्रिवेंद्र सिंह रावत इस मामले के प्रमुख उदाहरण हैं। हरीश रावत मूल रूप से अल्मोड़ा के निवासी हैं। उन्होंने कुमाऊं की मैदानी सीटों से लेकर गढ़वाल में हरिद्वार जैसे मैदानी जिलों तक राजनीतिक आधार बनाने का प्रयास किया। दोस्तो हरीश रावत के इस कदम ने यह साफ कर दिया कि राजनीतिक अवसर और प्रभाव बढ़ाने के लिए मैदानी जिलों में राजनीति करना अधिक फायदेमंद माना जाता है। इतना ही नहीं ये बात हो गई कांग्रेस की अब थोड़ा बीजेपी की तरफ रुख करते हैं। दोस्तो हरीश रावत की तरह ही बीजेपी नेता के त्रिवेंद्र सिंह रावत पौड़ी जिले के मूल निवासी हैं। लेकिन उन्होंने पहले देहरादून के डोईवाला और फिर हरिद्वार लोकसभा सीट से अपने राजनीतिक सफर को आगे बढ़ाया। दोस्तो ये साफ उदाहरण है कि नेताओं की प्राथमिकताएं हमेशा अपने मूल क्षेत्र तक सीमित नहीं रहतीं और आम लोगों क्या क्या उनको तमाम और चुनौतियों से निपटना होता है, लेकिन आम जन का पलायन समझ आता है लेकिन नेताओं ने भी कैसे अपने आप को सेट किया है वो ये रिपोर्ट बता रही है कि विजय बहुगुणा और उनके परिवार ने भी इस प्रवृत्ति को आगे बढ़ाया।
दोस्तो पौड़ी जिले के बुघाणी गांव के रहने वाले विजय बहुगुणा ने टिहरी लोकसभा से राजनीति की शुरुआत की, लेकिन बाद में मैदानी सीट सितारगंज से विधायक बनकर अपनी राजनीतिक जड़ें फैलाईं और इतना ही नहीं विजय बहुगुणा के बेटे सौरभ बहुगुणा ने भी इसी क्षेत्र से चुनाव लड़ा और वर्तमान में धामी सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं, आगे बढ़ते हैं ये तो कुछ नाम हैं। इसी तरह, कई अन्य नेताओं ने भी मैदानी जिलों की ओर रुख किया। दोस्तो हरक सिंह रावत ने अपनी मूल विधानसभा सीट को छोड़कर कोटद्वार और रुद्रप्रयाग से चुनाव लड़ा दोस्तो ये प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हैं जुनका नाम मेने बताया है या आगे भी बताने जा रहा हूं। दोस्तो एक नाम और जौड़ता हूं। रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, पौड़ी के मूल निवासी होने के बावजूद देहरादून और हरिद्वार से जुड़े। ये वो नेता है जो पहाड़ का जिक्र करते हैं। गाड़ गधेरों की बात करते-करते कैसे अपने और अपने परिवार को मैदान में सेट कर गए किसी ने देखा नहीं, जब देखा तो तब तक अपने पहाड़ी मूल के नेता मैदान में जमीन बना चुके थे। हां वो घर जमीन अलग, लेकिन ये वोट की जमीन बी तैयार कर चुके थे। हरीश रावत का जिक्र किया, अब कांग्रेस की युवा नेता अनुपमा रावत की बात करते हैं। हरिश रावत की बेटी हैं।
दोस्तो अनुपमा रावत अल्मोड़ा से निकलकर हरिद्वार की ग्रामीण सीट से चुनावी मैदान में उतरीं। और फिर यहीं की बन कर रह गई, हालांकि हरिश रावत की तरफ उन्हें ठेट पहाड़ी कहना ठीक नहीं होगा, लेकिन हरीश रावत की वजह से वो भी मैदान की ही हो गई। उधर बीजेपी के एक और नेता हैं जो पूर्व में मंत्री रह चुके हैं। अभी मंत्रीमंडल विस्तार को देख रहे थे, मंत्री बनने की प्रबल चाह रखते हैं फिर से मंत्री मंडर विस्तार तो नहीं हुआ लेकिन उनको प्रवक्ता का जिम्मा पार्टी ने जरूर दे दिया। दोस्तो BJP के खजान दास ने टिहरी जिले के मूल निवासी होने के बावजूद देहरादून की राजपुर सीट को चुना। दोस्तो यहां मै आपको बता दूं कि राजनीतिक पलायन केवल सीटों तक ही सीमित नहीं है। अधिकांश नेता अपने घर और राजनीतिक आधार भी मैदानी जिलों में स्थापित कर चुके हैं। इसके पीछे कई कारण हैं। पहला, मैदानी जिलों में पर्वतीय मूल के मतदाताओं की संख्या अच्छी खासी है, जिससे चुनावी सफलता की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। दूसरा, परिसीमन के बाद पहाड़ी जिलों की सीटें कम और मैदानी जिलों की सीटें बढ़ गई हैं, जिससे मैदानी सीटों पर चुनाव लड़ना अधिक फायदेमंद और सुरक्षित माना जाता है। इसके अलावा, दोस्तो एंटी-इनकंबेंसी का डर भी नेताओं को मैदानी जिलों की ओर खींचता है। कई बार नेता अपनी मूल सीट पर कई बार जीतने के बाद भी चुनौतियों से बचने और अधिक सुरक्षित चुनावी अवसर पाने के लिए मैदानी सीटों का रुख करते हैं। दोस्तो राजनीतिक विशेषज्ञ कहते हैं कि केवल कांग्रेस या बीजेपी ही नहीं, बल्कि क्षेत्रीय दल भी मैदानी जिलों में मुख्यालय रखते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड क्रांति दल का मुख्यालय भी देहरादून में स्थित है। यह संकेत है कि राजनीतिक शक्ति और संसाधनों के केंद्र मैदानी जिलों में ही अधिक मजबूत हैं। दोस्तो अंत में देखा जाए तो उत्तराखंड में राजनीतिक पलायन केवल नेताओं के व्यक्तिगत हित और राजनीतिक रणनीति का परिणाम नहीं, बल्कि यह प्रदेश की भूगोलिक, सामाजिक और चुनावी परिस्थितियों का भी हिस्सा है।
दोस्तो बीते 25 साल में कई बड़े नेताओं ने पहाड़ से मुंह मोड़कर मैदानी जिलों में अपने राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित किया। इस प्रवृत्ति के चलते मैदानी जिलों में पहाड़ी मूल के लोगों की संख्या बढ़ी है, जिससे चुनावी प्रभाव और राजनीतिक सक्रियता दोनों ही केंद्रित हो रहे हैं। यही कारण है कि कई नेता अपने मूल क्षेत्र से दूर जाकर मैदानी राजनीति में सक्रिय हैं, जबकि भाषणों में पलायन के दर्द की बात करते हैं। दोस्तो राजनीतिक पलायन उत्तराखंड में केवल जनता की समस्या नहीं, बल्कि नेताओं की अपनी रणनीति का भी परिणाम है। इस मामले में चिंता जताने वाले नेता खुद अपने फैसलों से इस प्रवृत्ति को और बढ़ावा दे रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या उत्तराखंड की पहाड़ी राजनीति में बदलाव संभव है, या मैदानी जिलों का प्रभाव लगातार बढ़ता रहेगा? उत्तराखंड की राजनीति में पलायन का यह इतिहास और वर्तमान तस्वीर स्पष्ट करती है कि वास्तविक शक्ति और राजनीतिक अवसर मैदानी जिलों में केंद्रित हो चुके हैं, और भविष्य में भी यही प्रवृत्ति बनी रहने की संभावना है। वैसे तो पलायन को जरूरत से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन कई मायनों में संपन्नता भी पलायन की वजह है. खैर इस पर तो राज्य स्थापना के बाद से ही हर कोई चिंता जताता रहा है लेकिन फिलहाल चर्चा उन नेताओं के पलायन को लेकर हो रही है जिनके भाषणों में तो पलायन का दर्द है लेकिन वे खुद पलायन से अपने आप को अलग नहीं कर पाए।