पांडव लीला में दिखता है महाभारत का जीवंत रूप | Uttarakhand News | Pandavas

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जी हां दोस्तो कैसे पूरानी परंपराओं को अपनी देवभूमि जिंदा रखे हुए, क्या है महाभारत से उत्तराखंड का संबंध। कैसे 12 साल होगी होगी पांडव लीला, देवभूमि उत्तराखंड। जहां हर पर्वत, हर घाटी और हर गांव एक कहानी कहता है। यहां इन दिनों एक ऐसी परंपरा जीवित होती नजर आ रही है, जिसकी जड़ें सीधे महाभारत काल से जुड़ी बताई जाती हैं। सवाल ये है कि जिन पांडवों की गाथाएं कुरुक्षेत्र से जुड़ी मानी जाती हैं, उनकी लीला उत्तराखंड के गांव-गांव में कैसे बस गई? दोस्तो क्या सच में महाभारत के बाद पांडवों ने देवभूमि के पहाड़ों में समय बिताया था? और क्या आज भी ग्रामीण उन्हें अपने गांव का रक्षक और स्वामी मानते हैं? बता इन सवालों के जवाब छिपे हैं पांडव लीला में—एक ऐसी परंपरा में, जो सिर्फ नृत्य या अभिनय नहीं, बल्कि आस्था, इतिहास और संस्कृति का जीवंत संगम है। दोस्तो उत्तराखंड को देवभूमि यूं ही नहीं कहा जाता। यहां की मिट्टी में आस्था, परंपरा और इतिहास रचा-बसा है। इन दिनों उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में पांडव लीला का आयोजन किया जा रहा है, जिसे देखने और समझने के लिए दूर-दूर से लोग पहुंच रहे हैं। कई लोगों के मन में ये सवाल उठता है कि महाभारत और पांडवों का संबंध कुरुक्षेत्र से रहा है, फिर उत्तराखंड में पांडव लीला की परंपरा कैसे जुड़ी। इसका जवाब धार्मिक ग्रंथों और लोक मान्यताओं में मिलता है। दोस्तो स्कंदपुराण के केदारखंड, जिसे आज गढ़वाल क्षेत्र कहा जाता है, यहां पांडवों का उल्लेख मिलता है। दोस्तो मान्यता है कि महाभारत युद्ध के बाद अपने संबंधियों के वध के पाप से मुक्ति पाने के लिए पांडव भगवान भोलेनाथ की तलाश में कैलाश पर्वत की ओर निकले थे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने उत्तराखंड के कई इलाकों में लंबा समय बिताया। पहाड़ों में रहने वाले लोगों ने पांडवों के जीवन को नजदीक से देखा और उनकी गाथाओं को लोक परंपराओं के जरिए आगे बढ़ाया।

दोस्तो पांडवों से जुड़ी कथाएं लोकगीतों, नृत्यों और वाद्य यंत्रों के माध्यम से स्थानीय भाषा में पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाई जाती रहीं. इसी से पांडव लीला की शुरुआत हुई, जो आज भी सदियों बाद उसी श्रद्धा और उत्साह के साथ निभाई जाती है। द्वापर युग से चली आ रही यह परंपरा देवभूमि उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों में आज भी खुशहाली और सौहार्द के प्रतीक के रूप में आयोजित की जाती है। दोस्तो पौड़ी जिला मुख्यालय पौड़ी से सटे गगवाड़स्यूं घाटी का मौरी मेला कुंभ व नंदादेवी राजजात की तरह 12 वर्षों में मनाया जाता है। जहां विकासखंड पौड़ी के तमलाग और कोट के कुंडी गांववासी पांडवों को देवताओं के रूप में पूजते हैं। तमलाग गांव में मौरी मेले का आगाज हो गया है। यह मेला छह महीने तक चलेगा, जिसमें बड़ी संख्या में प्रवासी ग्रामीण शामिल होंगे। मेले में पांडव नृत्य और विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन होना है। छह माह तक चलने वाले इस मेले में बड़ी संख्या में प्रवासी ग्रामीण भी जुटते हैं। मेले में छह महीने तक पांडव नृत्य के साथ ही विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है. मेले के दौरान तमलाग गांव के मध्य स्थित भैरव मंदिर के चौक में प्रतिदिन ढोल सागर से पांडव को अवतरित किया जाएगा। मेले में गणेश पूजन के साथ ही देवप्रयाग तक पैदल यात्रा भी की जाएगी। गेंडी वध, दो पेड़ गांव लाए जाने सहित अन्य पारंपरिक विधियों का भी विधि-विधान से आयोजन किया जाएगा। इस मेले में ढोल दमाऊं की थाप पर माता कुंती और द्रौपदी समेत पांचों पांडव ग्रामीणों पर पश्वा के रूप में अवतरित होते हैं। किवदंतियों के अनुसार, वनवास काल के दौरान पांडव तमलाग और पौड़ी देवप्रयाग के सबदरखाल के समीप कुंडी गांव में कुछ दिन रुके थे। तब ग्रामीणों ने अपने बेटों की तरह उनका आदर सत्कार किया। माता कुंती ने तमलाग गांव को ससुराल व कुंडी को मायके की उपाधि दी थी। तब से प्रत्येक 12 वर्षों में इन दोनों गांवों में पांडवों की स्मृति में मौरी मेला आयोजित होता है। मेला आयोजक समिति से जुड़े लोगों ने बताया कि मेला दिसंबर से अगले साल जुलाई तक चलेगा। सात माह तक गांवों में पांडव लीला चलती रहेंगी। दोस्तों, पांडव लीला सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि देवभूमि की जीवित आस्था है, जहां इतिहास, लोककथाएं और श्रद्धा एक साथ सांस लेती हैं। और शायद इसी वजह से उत्तराखंड के गांवों में आज भी द्वापर युग की गूंज सुनाई देती है।