जी हां दोस्तो पहाड़ों में रहने वाला पहाड़ों के अनदेखे दर्द को बखुबी जानता है, जब पहाड़ जीत लिए गए, लेकिन इंसान हार गया। ऊंचाइँयों तक तो पहुंच गया इंसान, लेकिन सोच वहां तक नहीं पहुंच पाई। दोस्तो मै बर्फ से लदी, ढकी दो तस्वीरों को दिखा रहा हैं। इन तस्वीरों को देखिए, फिर बताउंगा इन खूबसूरत सफेद पहाड़ों के पीछे का वो कड़वा सच और, और वो भद्दी तस्वीर जिसे आप शायद कभी देखना ना चाहें। दोस्तो इन दोनों तस्वीरों को कैसे लगा, बिना कुछ देखे भी आखों को सकून दे जाती हैं ऐसी तस्वीरें, लेकिन इनके पीछे की तस्वीर में दिखाने जा रहा हूं थोड़ा गौर कीजिएगा। एक बड़ी चिंता जो हमारे पहाड़ों की रही है, उस चिंता से आपको भी अवगत करा रहा हूं। आप ने अक्सर आपने सुना होगा Mountains are calling” ये सुना भी होगा, — ये वाक्य कभी रोमांच, साधना और आत्मअनुशासन का प्रतीक हुआ करता था। पहाड़ों का बुलावा अपने भीतर चुनौती के साथ-साथ विनम्रता भी लिए होता था, लेकिन आज ये वाक्य एक फैशन टैगलाइन बन चुका है—जिसके साथ भीड़ आती है, कैमरे चलते हैं, झंडे गाड़े जाते हैं और पीछे छूट जाता है कचरे का ढेर।
माउंट एवरेस्ट के बेस कैंप की हालिया तस्वीरें सिर्फ एक जगह की दुर्दशा नहीं दिखातीं, वे हमारी सामूहिक सोच और व्यवहार का आईना हैं। दोस्तो ये कोई हाईवे नहीं है, जहाँ ट्रैफिक जाम लग रहा हो, ये माउंट एवरेस्ट की चोटी तक जाने वाला रास्ता है, जहाँ सौ से ज़्यादा पर्वतारोही अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं। दुनिया की सबसे ऊँची चोटी आज रोमांच का प्रतीक नहीं, बल्कि हमारी भीड़भाड़ वाली सोच की तस्वीर बन गई है और उसी की तस्वीर में दिखा रहा हूं। जब पर्वतारोहण साधना नहीं, बल्कि पैसों से खरीदी जाने वाली बकेट-लिस्ट उपलब्धि बन जाता है, तब पहाड़ चुनौती नहीं, उत्पाद बन जाता है। और उत्पाद बिकते हैं—बिना यह देखे कि उनकी कोई सीमा भी हो सकती है या नहीं। दोस्तो एवरेस्ट आज एक ट्रैफिक जाम में फँसा हुआ है। एक-एक कदम के लिए इंतज़ार, ऑक्सीजन की कमी, बढ़ता जोखिम और जानलेवा हालात सवाल ये नहीं है कि कितने लोग शिखर तक पहुँचे, सवाल ये है कि कितने लोग उस ऊँचाई के काबिल थे—शारीरिक ही नहीं, मानसिक और नैतिक रूप से भी, ये सवाल इस लिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि अब मै आपको दूसरी तस्वीर दिखा रहा हूं।
दोस्तो जिस पर्वत को कभी सम्मान, संयम और अनुशासन की मिसाल माना जाता था, आज वहीं भीड़, प्रतिस्पर्धा और जल्दबाज़ी दिख रही है। कैमरे चल रहे हैं, झंडे लहरा रहे हैं, लेकिन पहाड़ चुप हैं—और शायद नाराज़ भी। दोस्तो जिस एवरेस्ट को कभी धरती का मुकुट कहा गया, आज वही मानव लापरवाही का बोझ ढो रहा है, प्लास्टिक, टूटे टेंट, खाली ऑक्सीजन सिलेंडर, खाने के पैकेट और छोड़ा गया सामान—यह सब उस जगह पर जमा है, जिसे दुनिया की सबसे शुद्ध और पवित्र जगहों में गिना जाता था। सवाल सिर्फ कचरे का नहीं है, सवाल उस मानसिकता का है जो प्रकृति को ‘जीतने’ की वस्तु मान बैठी है। दोस्तो पहले पहाड़ों पर चढ़ना एक साधना थी। इसके लिए वर्षों का अभ्यास, मानसिक दृढ़ता, शारीरिक क्षमता और सबसे ज़रूरी—प्रकृति के प्रति सम्मान चाहिए होता था। आज ऊँचाइयों तक पहुँचने का रास्ता काफी हद तक पैसों से खरीदा जा सकता है। नतीजा यह हुआ कि पहाड़ों पर ऐसे लोग भी पहुँच रहे हैं, जो न तो वहाँ की ज़िम्मेदारी समझते हैं, न ही वहाँ टिकने की संवेदनशीलता रखते हैं। दोस्तो एवरेस्ट अकेला उदाहरण नहीं है, हिमालय की कई चोटियाँ, उत्तराखंड और हिमाचल के पर्यटन स्थल, लद्दाख और कश्मीर के ऊँचे दर्रे—हर जगह एक जैसी तस्वीरें सामने आती हैं। बढ़ती भीड़, अनियंत्रित पर्यटन, सोशल मीडिया की होड़ और “मैं वहाँ गया था” साबित करने की बेचैनी ने पहाड़ों को एक इवेंट स्पेस में बदल दिया है। जहाँ आओ, तस्वीर लो, वीडियो बनाओ और आगे बढ़ जाओ—बिना यह सोचे कि पीछे क्या छूट रहा है। जी हां दोस्तो पीछे छूट रहा है वो कचर जो ये कथित प्रवर्तारोही, अपने आपको पहाड़ प्रेमी कहते हैं, अगर सच में “Mountains are calling” है, तो वह बुलावा किसी रिकॉर्ड, किसी पोस्ट या किसी झंडे के लिए नहीं है, वह बुलावा विवेक के लिए है—संयम के लिए, सीमाओं को समझने के लिए और प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की भाषा सीखने के लिए क्योंकि अगर हमने अब भी नहीं सुना, तो आने वाली पीढ़ियाँ शायद पहाड़ों की ऊँचाई नहीं, सिर्फ हमारी गलतियों की गहराई नापेंगी और ये कचरा देखिंगी।