कौन चला रहा है असली प्रशासन? | Uttarakhand News | Congress | Harak Singh Rawat

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‘उत्तराखंड में CM के आदेश ठंडे बस्ते में, कौन चला रहा है असली प्रशासन?’ हरक सिंह रावत ने खोल दी पोल! दे दिया 15 दिन का अल्टीमेटम बताउंगा आपको कैसे नौकरशाही अपने अपने अडियल रवैयये से सावलों के घेरे में है और क्यों अधिकारी तो वो पहाड़ी जिलों के हैं क्यों उनकी कुर्सी देहरादून में लगी है। Who is running the real administration? दगड़ियो उत्तराखंड राज्य का गठन पर्वतीय क्षेत्रों के विकास और वहां के लोगों को सशक्त बनाने के उद्देश्य से हुआ था ये सब जानते हैं लेकिन 24 साल बाद भी हालात बदले नहीं हैं ऐसा कई बार लगता है, औक दिखता भी है आज भी शासन-प्रशासन की प्राथमिकताएं मैदानी क्षेत्रों तक ही सीमित हैं। ताजा मामला पौड़ी मुख्यालय से जुड़ा है, जहां गढ़वाल कमिश्नर और मंडलीय अधिकारी नियमित तौर पर बैठने को तैयार नहीं हैं। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद अधिकारी देहरादून छोड़ने को तैयार नहीं हैं इस मामले पर अब कैसे सियासी रंग चढ रहा है। ये आपको बताउंगा साथ ही ये भी बताने की कोशिश होगी कि आखिर अधिकारी क्यों नहीं पहाड़ चढते हैं। मुद्दा पौड़ी की उपेक्षा का है लेकिन भी सच है कि प्रदेश के ज्यादा तर पहाड़ी जिलों में अधिकारी जाना नहीं चाहते, जिंन्हें भेज भी दिया जाता है तो वो वहा रहना नहीं चाहते अब ऐसे कैसे चलेगा बता नहीं, खैर हरक सिहं रावत ने बात पौड़ी की छेड़ी है तो यहीं कर लेता हूं।

दगड़ियो गढ़वाल मंडल के मुख्यालय पौड़ी में मंडलीय अधिकारियों की गैरमौजूदगी केवल एक प्रशासनिक लापरवाही नहीं, बल्कि एक बड़े क्षेत्र के साथ निरंतर हो रही उपेक्षा का प्रतीक बन चुकी है। जब राज्य का शीर्ष नेतृत्व ही इस ओर गंभीर नहीं दिखता, तो नीचे के अधिकारी क्यों जिम्मेदारी लें? पौड़ी जैसे दूरस्थ लेकिन रणनीतिक रूप से अहम स्थान को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। दगड़़ियों आज तो नेता का बयान आ रहा है, लेकिन स्थानीय जनता वर्षों से इस उपेक्षा के खिलाफ प्रदर्शन करती आ रही है, लेकिन हालात जस के तस हैं यहाँ तक कि जब-जब जनता ने आंदोलन का रास्ता अपनाया, अधिकारी वादों के साथ आए, मगर उन वादों की उम्र सिर्फ कुछ दिन ही रही लेकिन अब हरक सिंह रावत की चेतावनी से आंदोलन की दस्तक दिखाई दे रही है क्या वो इस लिए दगड़ियो कि पूर्व कैबिनेट मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत ने इस मुद्दे को लेकर खुलकर सरकार और अफसरशाही पर निशाना साधा है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि यदि 15 दिनों के भीतर गढ़वाल कमिश्नर और अन्य मंडलीय अधिकारी पौड़ी मुख्यालय में नियमित रूप से बैठना शुरू नहीं करते हैं, तो वे उग्र आंदोलन और भूख हड़ताल का रास्ता अपनाएंगे। अब दोस्तो हरक सिंह रावत का यह बयान न केवल उनकी राजनीतिक सक्रियता को दर्शाता है, बल्कि एक बड़े जनसमूह की भावना और पीड़ा को भी सामने लाता है, उनका यह आरोप भी गंभीर है कि खुद मुख्यमंत्री नहीं चाहते कि गढ़वाल कमिश्नर पौड़ी में बैठें, क्योंकि अगर ऐसा होता तो उन्हें अन्य महत्वपूर्ण चार्ज और पद न दिए जाते। दोस्तो मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी द्वारा पूर्व में साफ निर्देश दिए गए थे कि मंडलीय अधिकारी मुख्यालय में नियमित रूप से बैठें, लेकिन इन आदेशों की अनदेखी यह दर्शाती है कि नौकरशाही सरकार के निर्देशों को गंभीरता से नहीं ले रही।

यह लोकतंत्र की प्रशासनिक प्रणाली पर भी बड़ा प्रश्नचिह्न है। दगड़ियों तो पूछना होगा ना कि आखिर क्यों नहीं हो पा रही है इन अधिकारियों की जवाबदेही तय? क्या उत्तराखंड की अफसरशाही, जनप्रतिनिधियों और जनता से ऊपर हो चुकी है? दगड़ियो गढ़वाल कमिश्नर पहले ये कह चुके हैं कि वह हर महीने पौड़ी मुख्यालय में बैठेंगे और मंडल स्तर की बैठकों की अध्यक्षता करेंगे लेकिन हकीकत यह है कि पूरे साल में वह मुश्किल से एक बार ही मुख्यालय आए। सवाल उठता है कि जब कमिश्नर खुद अपनी बातों पर खरे नहीं उतर पा रहे, तो फिर बाकी अधिकारियों से क्या अपेक्षा की जाए? दोस्तो देहरादून में अफसरों का “केंद्रीकरण” अब केवल सुविधा की बात नहीं रही, बल्कि यह सत्ता और प्रभाव का केंद्र बन गया है। अफसर वहीं रहना चाहते हैं जहाँ सारी “पावर” है—देहरादून में। इसका सीधा नुकसान पहाड़ी जिलों को होता है, जहाँ शासन की पहुंच न के बराबर हो जाती है, साथ ही दोस्तो ये प्रवृत्ति उत्तराखंड की मूल भावना के खिलाफ है। राज्य का गठन ही इसलिए हुआ था ताकि पर्वतीय क्षेत्रों का प्रशासनिक विकेंद्रीकरण हो, विकास वहां तक पहुंचे, लेकिन अब उलटा हो रहा है। जब लोग अपने जिला और मंडल मुख्यालय में भी अधिकारियों को नहीं देख पाते, तो उनकी समस्याएं कौन सुनेगा? उनके आवेदन, शिकायतें, योजनाएं सब देहरादून की “फाइलों” में दबकर रह जाती हैं इसका असर साफ़ तौर पर स्थानीय विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मोर्चों पर दिख रहा है। जनता को अपने कामों के लिए सैकड़ों किलोमीटर का सफर करके देहरादून जाना पड़ता है क्या यही “जनसेवा” है? क्या यही “सरल प्रशासन” है? ये स्थिति सिर्फ अधिकारियों की मनमानी का नतीजा नहीं है, बल्कि कहीं न कहीं शासन की कमजोरी को भी दर्शाती है, यदि सरकार में इच्छाशक्ति हो, तो वह अधिकारियों की जवाबदेही सुनिश्चित कर सकती है, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा।

राज्य की राजनीति में ये सवाल भी उठने लगे हैं कि कहीं यह “मैदानी बनाम पहाड़ी” खींचतान का नया रूप तो नहीं? क्या मुख्यमंत्री का प्रशासनिक ढांचा केवल देहरादून को ही प्राथमिकता देता है? दगड़ियों मुझे नीजि तौर पर लगता है कि सख्त कार्रवाई की जरूरत है। यदि अधिकारी मुख्यमंत्री के आदेशों की अवहेलना कर रहे हैं तो उनके खिलाफ विभागीय कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके साथ ही नियमित उपस्थिति की निगरानी होनी चाहिए एक स्पष्ट कैलेंडर बनाकर जनता के सामने जारी किया जाए कि किस अधिकारी को कब-कब मुख्यालय में उपस्थित होना है। जनभागीदारी बढ़े भू-राजनीतिक संतुलन ताकि कोइ फर्क ना पड़े मैदान और पहड़ में अब हरक सिंहर रावत ने हुंकार तो अधिकारियों की कार्यशैली को लेकर भर दी है। देखना होगा कि इसका कितना असर देखने को मिलता है, वैसे कांग्रेस को एक पौड़ी की बात ही नहीं करनी चाहिए। उसे पूरे पहाड़ की स्थिति और वहां बैठने वाले अधिकारियों पर बात करनी चाहिए। आगे तो वक्त बताएगा क्या होगा लेकिन फिलहार ये देखना होगा कि साहब पौड़ी दौड़ते हैं या नहीं।