ना रोने की कोई वजह थी और ना हंसने का बहाना था, क्यों हो गए हम इतने बड़े, इससे अच्छा तो बचपन का जमाना था। गाहे-बगाहे हम सभी का मन करता है कि काश हम बच्चे हो जाएं। बचपन के दिनों की तरह कागज की कश्ती बारिश के पानी में बहाएं और दोस्तों के साथ मिट्टी में खेलें।
हमारे जनप्रतिनिधि भी हमसे अलग नहीं, उन्होंने भी अपने बचपन में जमकर मस्ती की ही और हम लोगों की तरह ही ईजा (मां) और बाबू (पिता) की डांट भी खाई है। इस फेहरिस्त में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी, पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत से लेकर आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार कर्नल अजय कोठियाल तक के नाम शामिल हैं।
केले के तने से नाव बनाते थे सीएम धामी
मैं भी आम बच्चों की तरह बचपन में शरारती था। केले के तने को काटकर नाव बनाया करता था और अपने साथियों के साथ इस नाव को शारदा नहर में दिन भर बहाया करता था। बस एक ही बात का डर था कि कहीं ईजा को पता न चल जाए। पर ईजा तो ईजा ठहरी उसे पता चल जाता था कि मैं नहर के किनारे गया था। पहले समझाती थी जब मैं अगले दिन फिर नहर में नाव बहाने जता तो अगले दिन फिर पिटाई होती थी। बाद में प्यार से ईजा समझाती थी और नहर किनारे जाने के खतरे भी बताती थी। पढ़ाई के साथ खेलने में भी तेज था। कल के बच्चे और आज के अभिभावकों से मेरी अपील है कि बच्चों से उनका बचपन न छीनें, उन्हें समय देने के साथ अच्छी पुस्तकें पढ़ने के लिए दें और योग और आउटडोर गेम खेलने दें।
-पुष्कर सिंह धामी, मुख्यमंत्री उत्तराखंड
बिल्ली को समझ बैठा था बाघ : हरीश रावत
मैं करीब पांच या छह साल का था। तब किसी बात पर मुझे डांट पड़ी तो मैं नाराज होकर पिरूल के ढेर में छिप गया। काफी आवाजों के बाद भी मैं नहीं निकला। ननिहाल नजदीक था तो घर वालों ने सोचा कि मैं ननिहाल चला गया। वहां पूछने पर जब मेरा पता नहीं चला तो मेरी तलाश शुरू हुई। जहां मैं छिपा था वहीं पर एक बड़ी सी बिल्ली आकर बैठ गई। बिल्ली तो नहीं देख पाया लेकिन उसकी धारियां देखकर मैं उसे बाघ समझकर डर गया। ठीक उसी समय मेरी चाची गोठ में गाय-भैंसों को चारा देने आई तो मैं बोल पड़ा काकी मैं यहां छौं (चाची मैं यहां हूं)। चाची ने बाहर जाकर कहा कि हरीश तो यहां छिपा है। तब तक बिल्ली भाग गई और मैं पकड़ में आ गया। उस दिन मेरी बड़ी पिटाई हुई कि तुमने सबको परेशान कर दिया। बच्चों से यही कहूंगा बचपना ठीक है लेकिन अपने मां-पिता को परेशान न करें और अभिभावकों से कहूंगा कि बच्चों को उनका बचपन जीने दें।
-हरीश रावत, पूर्व मुख्यमंत्री
आम बच्चों की तरह ही था शरारती
मैं भी बचपन में आम बच्चों की तरह ही शरारती था। मेरे पिता बीएसएफ में थे। एक बार श्रीनगर में गढ़वाल राइफल के प्रोग्राम में ले गए तो वहां पर सेना का बैंड गीत बजा रहा था कि ‘बढ़े चलो गढ़वालियों बढ़े चलो दिल में जिगर आंख में काल चाहिए तलवार चाहिए ना कोई ढाल चाहिए गढ़वालियों के खून में उबाल चाहिए…। इस गीत को सुनकर साढ़े तीन साल की उम्र में भी सेना में जाने का जज्बा पैदा हो गया था। इस जज्बे को जुनून बनाने का काम किया स्कूल में सुने एक और गीत ने ‘जन्नत की है तस्वीर ये तस्वीर न देंगे। हाथों में किसी गैर के तकदीर न देंगे। कश्मीर है भारत का कश्मीर न देंगे।’ मेरा सौभाग्य है कि मुझे गढ़वाल राइफल को कमांड करने का मौका मिला और कश्मीर में तैनाती भी मिली। अभिभावकों को यही कहूंगा कि बच्चों को अच्छी शिक्षा के साथ ही देशप्रेम का जज्बा भी पैदा करें।
– कर्नल अजय कोठियाल, आप के मुख्यमंत्री पद के दावेदार
बचपन जीने दें
आज के दौर के अभिभावकों के साथ एक समस्या है कि वे अपने बच्चों को उनका बचपन जीने नहीं देते हैं। छोटे से कंधों पर उम्मीदों का भारी बोझ डाल देते हैं। जनप्रतिनिधियों का भी ऐसे अभिभावकों से यही कहना है कि अपने बच्चों को भी उनका बचपन जीने दें। उनके साथ वक्त बिताएं और उन्हें पढ़ाई के साथ ही मैदान में खेलने और कूदने भी दें।