कभी उत्तराखंड का ही नहीं देश के गौरव, आज गुज़र-बसर करना मुश्किल। जी हां तो क्यों फीका पड़ता गया अल्मोड़ा का ये हस्तसिल्प काम, क्यों नहीं बचा आए अपनी संस्कृति और विरासत को। Handicrafts Of Almora दोस्तो कभी उत्तराखंड ही नहीं देश का गौरव रहे तांबा कारीगर आज अपने गुज़र-बसर के लिए मजबूर हो गए हैं। इनकी हालत को लेकर आज बात करने वाला हूं। आप के घर में पहले कई बर्तन ताबें के होते होंगे और कई नहीं तो एक बर्तन तो जरूर होगा ताबें का वो पानी वाली गगरी जिसे गागर कहते हैं। क्या आप जातने हैं ये तांबे का अपने अल्मोड़ा में ही होता था। अलमोड़ा को तब ताम्रनगरी भी कहा जाता था। लेकिन मौजूदा वक्त में जब चुनाव होते हैं तब हर दल इस उद्योग को अल्मोड़ा की संस्कृति से जोड़ रहा है और उसे राज्य का गौरव बताता रहा है। लेकिन कोई भी दल कोई ठोस रोडमैप लेकर इनके बीच नहीं आज तक नहीं पहुंच पाया। दोस्तो उत्तराखंड का अल्मोड़ा शहर कभी ताम्रनगरी के रूप में जाना जाता था, लेकिन अब तांबे का काम अपने पतन की ओर है। कभी उत्तराखंड ही नहीं देश का गौरव रहे तांबा कारीगर आज अपने गुज़र-बसर के लिए मजबूर हो गए हैं लेकिन किसी भी सरकार ने इनके उत्थान के लिए कोई काम नहीं किया है। हालांकि, इनके नाम पर राजनीति होती रही है। आप थोड़़ा पीछे मुड़कर देखेंगे तो राज्य सरकार ने कुंभ मेले में यहां के बने कलश को मुख्य अतिथियों को दिया था, लेकिन उसके आगे कुछ नहीं हुआ और अंत में ये एक फ़ोटो Opportunity बनकर रह गया।
दोस्तो अल्मोड़ा में बनने वाले तांबे के बर्तनों को करीब 100 साल से यहां पर बनाया जा रहा है। अल्मोड़ा के टम्टा मोहल्ला और दुगलखोला स्थित ताम्र नगरी में बनाए जाने वाले तांबे के बर्तनों की डिमांड उत्तराखंड समेत कई राज्यों और विदेशों में भी देखने को मिलती है। मशीनों के बदले हाथ से बनाए जाने वाले तांबे के बर्तनों की डिमांड ज्यादा देखने को मिलती है। स्थानीय कारीगर बताते हैं कि किसी समय पर यहां दर्जनों लोग तांबे के बर्तन बनाने के काम से जुड़े हुए थे। अब हाल ऐसा है कि गिने-चुने लोग ही यहां काम कर रहे हैं…अब करीब 15 लोग ही यहां पर काम कर रहे हैं। ताँबे के कारीगरों का कहना हैं कि सरकार द्वारा मदद नहीं की जाती है, सिर्फ आश्वासन दिया जाता है। सरकार द्वारा अगर उनकी मदद की जाए, तो युवा इससे जुड़ेंगे और आगे बढ़ेंगे तो आपको सुना और दिखा रहा हूं वो दर्द जो कभी ना किसी ने देखना चाहा और ना ही सुनना, लेकिन आप समझने की कोशिश कीजिएगा। यहाँ हाथ से बनने वाले बर्तनों की बात करें तो वर्तमान में यहां पर तांबे से परात,गागर,कलश, फौले,गिलास,प्लेट,गगरी, जलकुंडी समेत कई साज-सजावट का सामान भी मिलता था। सवाल ये है कि आज क्या आज भी इतना सामान यहां बन पाता है। बनाता है तो बिक पाता है। बनावट और वजन के हिसाब से प्रोडक्ट के दाम तय होते हैं। टम्टा मोहल्ला में बनने वाले बर्तन अल्मोड़ा समेत आसपास के बाजार में आपको आसानी से मिल जाएंगे लेकिन आधुनिकीरण की इस चका चौध में अल्मोड़ा का ये हस्तसिल्प फीका पड़ता जा रहा है।
इस हस्तसिल्प के कार्य और कारीगरों को दरकार है सरकार की मदद की जिससे जहाँ एक ओर इस परंपरागत कला को संरक्षण मिले वही दूसरी और इनके ताबें के बर्तनो को बड़ा बाजार। वर्तमान स्थिति को समझने के लिए अल्मोड़ा शहर की ताम्र नगरी टम्टा कालोनी गए, जहां आज भी कुछ परिवार इस काम से जुड़े हुए हैं। हथौड़े और छेनी की चोट से तांबे के एक बर्तन पर डिज़ाईन बना रहे थे। उन्होंने बताया कि वो पिछ्ले लगभग पांच दशकों से इस काम से जुड़े हुए हैं। जब उनकी उम्र चार-पांच साल की थी, तब से ही वो इस काम में अपने परिवार की मदद करते थे। लेकिन आज के हालात को लेकर बात करते हैं तो कारीगरों की आंखों में और चेहरे पर एक उदासी छा गई और कहा कि अब इस काम में कुछ नहीं बचा है। मुश्किल से परिवार का खर्च चल पाता है.. बता दूं कि काम से उनका लगभग पूरा मोहल्ला जुड़ा हुआ था परंतु आज गिनती के चार से पांच परिवार ही इस काम को कर रहे है। पारंपरिक तांबे के बर्तनों तक का अल्मोड़ा का सफर बेहद समृद्ध और प्राचीन रहा है। ये चंद वंश के समय से ही ये काम करते रहे हैं, स्थानीय लोग बताते हैं कि ताम्र नगरी का इतिहास करीब 500 साल पुराना है।
बताते हैं कि चंद राजाओं के समय टम्टा परिवार का इनके दरबारों में एक खास औधा था। ये ज़मीन के नीचे तांबे धातु की पहचान व गुणवत्ता परखने में माहिर थे। जब चंद राजाओं ने अपनी राजधानी को चम्पावत से अल्मोड़ा में शिफ्ट किया था, तब राजधानी बनाने के बाद यहां तामता (टम्टा) परिवारों को अल्मोड़ा में बसाया गया। तब ताम्रशिल्प को कुमाऊं के सबसे बड़े उद्योग का दर्जा मिला, जहां इनके द्वारा घरेलू उपयोग के साथ पूजा व धार्मिक आयोजनों में उपयोग होने वाले बर्तनों के साथ सिक्कों की ढलाई व मुहर भी बनाई जाने लगी। वर्तमान में ये बर्तन के अलावा वाद्य यंत्र रणसिंघ, तुतरी आदि बनाते हैं। दोस्तो हालांकि अंग्रेजी हुकूमत में इस उद्योग पर असर पड़ा क्योंकि वो ब्रिटेन से ताँबा मंगाने लगे लेकिन, फिर भी यह उद्योग खुद को प्रासंगिक बनाए रखने में सफल रहा। इस उद्योग को सबसे बड़ा नुकस्ान मशीनीकरण से हुआ। ये कड़वी सच्चाई है जिंदा करने और नए युवकों को इस कला से जोड़ने के लिए निरंतर काम करने वाले बताते हैं कि अंग्रेजी शासन काल में भी खूब फला-फूला, लेकिन जैसे ही शिल्पकारों की हस्तकला पर मशीनीयुग की काली छाया क्या पड़ी, बुलंदियों पर रही ताम्रनगरी धीरे-धीरे उपेक्षा से बेजार होती चली गई। पूराने लोग तांबे को काम को 40-50 साल से कर रहे हैं। वो कहते हैं कि पारंपरिक कारीगरों के घरेलू कारखानों की बजाय जब से आधुनिक फैक्ट्रियों में मशीनों से तांबे का काम होने लगा, तब से ही ताम्र नगरी में तांबे के कारीगर अपने पतन की ओर बढ़े रहे हैं और संकट की स्थिति पैदा हो गई है। जो एक ज़माने में इस उद्योग से जुड़े थे, और कमाई करती होती थी, अब अपना परिवार चलाने के लिए दूसरे काम पर निर्भर रहना पड़ता है।
दोस्तो पहले ताम्रनगरी से हथोडों से तांबे की पिटाई की आवाज़ दिनभर आती थी और बड़े पैमाने पर लोग इस उद्योग से जुड़े हुए थे, लेकिन आज गिने-चुने लोग ही काम कर रहे हैं। दोस्तो एक जानकारी और ताम्रनगरी में वर्कशॉप की स्थापना संयुक्त उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने 1997-98 में की थी, जिसमें 10 से 12 कमरों का एक वर्कशॉप बनाया गया था, जहां ये कारीगर काम किया करते थे, लेकिन आज ये वर्कशॉप कम बल्कि, कारीगरों का घर ज्यादा बन गया है क्योंकि काम नहीं होने से ये सभी कारीगर इसी में रहने लगे और अब उनके पास दूसरा कोई आशियाना नहीं है। एक और बात जो पूराने लोग जानते होंगे। पहाड़ में शादी के सीज़न में तांबे के तौले देने की प्रथा अब कम रह गई है, लेकिन गगरी आदि की खूब मांग रहती है। बहरहाल दोस्तो लगभग सभी कारीगरों ने एक बात दोहराई कि उनकी नई पीढ़ी इस काम से दूर जा रही है क्योंकि इससे परिवार चलाना भी मुश्किल हो गया है। पुराने कारीगर भी इस काम से बाहर चले गए हैं। सरकार ने उनके उत्थान के लिए कागज़ों पर कई नीतियां बनाई हैं, लेकिन धरातल पर कुछ नहीं दिखता है। पहले से ही अपने बुरे दौर से गुज़र रहे इस उद्योग पर उतना भरोसा रहा नहीं है। सभी लोग यहां ये चाहते हैं कि उनकी इस कारिगरी को बचाया जाय..सरकार इसको गंभीरता से ले।