उत्तराखंड का सत्ता-संग्राम: गीत-संगीत और काव्य ने जलाई राजनीतिक चेतना की मशालें

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उत्तराखंड के कवियों गीतकारों और नाट्यकर्मियों ने अपनी रचनात्मकता की मशाल जगाए रखी। जन आंदोलनों को उन्होंने अपने तेवरों से धार दी। वक्त के साथ सामाजिक चेतना के बिंब बदलते रहे, लेकिन उनका चेतना जगाने का प्रवाह सतत बना रहा। अपने समय के शासकों की कार्यशैली और उनकी नीतियों के खिलाफ हर दौर में काव्यात्मक अभिव्यक्तियां सामने आई हैं। इन अभिव्यक्तियों ने यहां सत्ता के सिंहासनों तक को हिलाने का काम किया।

उत्तराखंड के किसी भी दौर के राजनीतिक चेतना, आंदोलन और संघर्ष को समझना है तो उत्तराखंड के गीत संगीत नाट्यविधा की ओर झांका जा सकता है। उत्तराखंड के सुपरिचित गायक और लोक काव्यकार नरेंद्र सिंह नेगी के गीत नौछमी नारैणा के बाद यहां की राजनीति में ऐसा तूफान उठा कि उसने सत्ता समीकरणों में उथल-पुथल पैदा कर दी। नेगी दा की इस रचना ने तत्कालीन सत्ता के कारनामों की कलई खोलकर जनता को जगाने का काम किया। जनता ऐसी जागी कि राज्य की पहली निर्वाचित सरकार का अगले ही चुनाव में विदाई हो गई।

नेगी दा के गीतों के तरकश से एक के बाद एक चले तीरों ने राजनीतिक सत्ताओं को आईना दिखाने का काम किया। वह यहीं नहीं रुके। इस बार जब उन्होंने लिखा- अब कथगा खैल्यू रिश्वत कू रैलू भात… तो एक और मुख्यमंत्री की विदाई की पटकथा लिखी गई। इनका नाम था रमेश पोखरियाल निशंक। पवन सेमवाल के गीत सुनिंद सैयूं छ छांपू बडा, सुनिंद सैंई छ सरकार रे… ने भी सत्ता में बैठे लोगों को उनके कर्तव्यों को याद दिखाने का काम किया। गायक आलोचना का शिकार भी हुए, लेकिन कहीं न कहीं इस गीत ने भी राजनीतिक पर्दों के पीछे की स्वाह हकीकत को जनता के सामने रखने का काम किया। गजेंद्र राणा ने भी नौछमी नरैणा की तर्ज पर नरूमा नरैणा… गीत लिखा। इसके बारे में कहा गया कि यह गीत सरकार के पक्ष में और नरेंद्र सिंह नेगी के खिलाफ था। इस बात को लेकर गीतकार और गायक की खूब आलोचना भी हुई।

गीतों के जरिये पर्यावरण से लेकर शराब बंदी तक की जलाई अलख
यहां गीतों और कविताओं के जरिये पर्यावरण के लिए अलख जली तो शराब बंदी के लिए आंदोलित स्वरों को गीत मिले। युद्ध के दौरान के जितने मर्मस्पर्शी भावुक गीत उत्तराखंड में बने, वह कालजयी हैं। एक विरासत हैं। पलायन के दर्द को कविता के जरिये गाकर लोगों को वापस अपनी मिट्टी में आने के लिए झकझोरा गया। जब लोगों ने अपना राज्य चाहा तो लोग मशालें जलाकर सड़कों पर निकले। उनके स्वर थे- बोला ये बंधु कन उत्तराखंड चहेणु च..।  ..और भैजी कख जाणा छां तुम लोग… उत्तराखंड आंदोलन मां…। इसी उत्तराखंड में आजादी के समय क्रांति जगाते गीत बने।

गौरा देवी और उनके साथियों ने पेड़ों से लिपटकर उनकी रक्षा की। तब उनके स्वर यही थे, आवा दीदी भूलयों यूं डालियों बचावा…। जब भारतीय सैनिक बांग्लादेश का युद्ध लड़ रहे थे तो पहाड़ों का कवि विरहन का गीत लिख रहा था, कन बड़ी मूरूली ऊंची नीची डांड्यो मा… । युद्ध सैनिकों के लिए कई गीत लिखे गए। शहीदों को भी कई गीत अर्पित हुए। गीतकारों कवियों लेखकों जनगीतकार, रंगमंच के कलाकारों ने हर दौर में सत्ता को झकझोरने में नैतिक साहस दिखाया। सामाजिक राजनीतिक चिंताओं को भी सामने रखा। आपदाओं के समय भी गीत लिखे गए। लोगों को प्रकृति को बचाने संवारने का आग्रह किया गया तो शासकों को बेहतर आपदा प्रबंधन के प्रति सजग किया गया। युवाओं के रोजगार पलायन की चिंता भी गीतों कविताओं में मुखरित हुई।
हर रीत के लिए एक नया गीत
पलायन पर मशहूर गीतकार चंद्र सिंह राही ने लिखा – अपनी थाती मा तू लौटी क ऐजा…। उन्होंने पांच सौ से अधिक गढ़वाली कुमाऊंनी के गीतों को अपनी आवाज दी और सामाजिक, राजनीतिक चेतना की अलख जगाने में अपना योगदान दिया।
बेडु पाको बारो मासा.. के गीतकार मोहन उप्रेती का यह गीत कुमाऊं रेजिमेंट का आधिकारिक रेजिमेंट गीत बना। पूर्व प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू का यह पसंदीदा गीत था। उनके तमाम गीत भी जन-जन की आवाज बने।
हीरा सिंह राणा लिखते हैं- त्यर पहाड़, म्यर पहाड…पहाड़ की व्यथा…। उनकी पहचान ऐसे गायक, कवि के रूप में की जाती है, जिनके गीतों ने पहाड़ के लोगों के दर्द को उजागर किया।
पहाड़ों की भावुकता को उजागर करते हुए कन्हैया लाल डंडरियाल लिखते हैं- दादू मी पर्वतों कू वासी… तो पहाड़ों की चेतना को उजागर करते हुए बाबू गोपाल गोस्वामी लिखते हैं- रंगीलों गढ़देश मेरु रंगीलों कुमाऊं…
उत्तराखंड आंदोलन के दौरान कवि बल्ली सिंह चीमा गीत- ले मशाले चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के…ने आंदोलन को एक नई धार दी। यह गीत उस वक्त बच्चे-बच्चे की जुबान पड़ चढ़ चुका था। आज भी राजनीतिक और तमाम आंदोलन में गाए जाने वाले जनगीतों में इस गीत को उसी सुर में गाया जाता है।
उत्तराखंड की गौरव गाथा को प्रस्तुत करता मीना राणा का गीत- हम उत्तराखंडी छा…के बोल किसी गर्व का अहसास कराते हैं।
जनकवि अतुल शर्मा ने भी सड़कों से लेकर विभिन्न मंचों पर अपने गीतों के जरिए समय-समय पर जनमानस को जगाने का काम किया है। उत्तरषाखंड आंदोलन पर लिखा उनका गीत- लड़के लेंगे, उत्तराखंड… और आज प्रजा की आंख तनी है, राजा चुप है, तकलीफें तूफान बनीं हैं और राजा चुप है… और यह कैसी राजधानी है, हवा में जहर घुलता है… जैसे गीत कालजयी बन गए।
यहां गौरा देवी के चिपको आंदोलन पर भी गीत लिखा गया, जिसके बोल थे- चला दीदी चला भूलों, यू डालयों बचौला…
गिरीश तिवारी गिर्दा लिखते हैं- चाहे हम नी लै सकों, चाहे तुम नी ले सकों, जागो जागों मेरा लाल
हरीश लखेड़ा ने उत्तराखंड आंदोलन पर किताब लिखी- स्मृतियों का हिमालय, उत्तराखंड आंदोलन

उत्तराखंड महान गांदा हम जै गौरव गान..
नंद किशोर नौटियाल की किताब अलकनंदा, गायक पप्पू कार्की, डॉ. राजेश्वर प्रसाद के गीत- उत्तराखंड महान गांदा हम जै गौरव गान.., धरती भारत के वीरों की मेरु उत्तराखंड महान…. लोकेश नवानी के गीत- एक लड़ाई और लड़े, लड़ के लेंगे उत्तराखंड, जसवंत सिंह, प्रीतम भर्तवाण, हरि मृदुल, व्योमेश जुगराण, मदन डुकलाण, पवन राजदीप, अरूण नैथानी, मंगलेश डंगवाल, ललित मोहन जोशी, बीके सामंत, कल्पना चौहान, माया उपाध्याय, अनुराधा निराला, जैसे गीतकारों, गायकों और संगीत प्रेमियों ने अलग-अलग समय पर राज्य के तमाम मुद्दों को अपने गीतों के जरिये धार दी।
..तब हेमवती नंदन बहुगुणा ने इंदिरा गांधी के खिलाफ लगाया था मंडाण
नेगी दा के गढ़वाली गीत नौछमी नारेणा में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी और उनकी सरकार की आलोचना पर बिफरने वाले लोग इस बात से चौंक सकते हैं कि गढ़वाली भाषा में 80 के दशक में इंदिरा गांधी के खिलाफ भी गीत लिखा गया था। वरिष्ठ पत्रकार व लेखक मनु पंवार की गाथा एक गीत की (इन इनसाइड स्टोरी ऑफ नौछमी नारेण) में इसका जिक्र है। पुस्तक के मुताबिक, यह गीत न सिर्फ लिखा गया, बल्कि उसका देश की राजधानी दिल्ली में सार्वजनिक प्रदर्शन भी हुआ। इसके सूत्रधार थे खुद कांग्रेस पार्टी के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री रह चुके हेमवती नंदन बहुगुणा। इन्होंने दिल्ली में 15 अगस्त 1976 को स्वतंत्रता दिवस के मौके पर देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ एक राजनीतिक जागर का आयोजन किया था। इसे मंडाण नाम दिया गया था। यह उन दिनों का किस्सा है, जब देश में एमरजेंसी (जून 1975 से जनवरी 1977) लागू थी। इस गीत में बहुगुणा ने इंदिरा को गांधी को इंदिरा भवानी कहकर संबोधित किया था।

जनगीत, कविताओं और रंगमंचों ने किया सत्ताओं को प्रभावित
उत्तराखंड राज्य अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय से ही आंदोलन का प्रदेश रहा है। पर्वतीय क्षेत्र के सामाजिक आंदोलन, यहां की सैन्य पृष्ठभूमि, यहां का जीवन, यहां की राजनीति को प्रभावित करता रहा। इन आंदोलनों और यहां के जीवन संघर्ष पर जो गीत बने, जनगीत लिखे गए, कविताएं और रंगमंच हुए, उसने हर दौर में सत्ता को प्रभावित किया। इनसे जनजागृति हुई। सत्ता ने जनआवाज पर अपने फैसले भी बदले। समाज ने भी दिशा पाई। इस राज्य में देवभूमि मानते हुए मनोरम गीत संगीत रचा गया। जागर सम्राट प्रीतम भर्त्वाण और बसंती बिष्ट को जागर गायन के लिए पद्मश्री मिला। जबकि लीलाधर जगुड़ी ने साहित्य के क्षेत्र में पद्श्री हासिल किया। पूरे क्षेत्र का जीवन यहां के रचनात्मकता से प्रभावित हुआ। श्रीदेव सुमन, माधो सिंह भंडारी, तीलू रौतेली, गौरा देवी के जीवन को लेकर नृत्य नाटिका मंचन हुए।

हर मौके हर घटना पर रचे गए गीत
वर्ष 1954 में प्रकाशित गढ़वाली लोकगीतों के संकलन धुयांल के आमुख में उत्तराखंड के पहले बैरिस्टर पत्रकार और कला समीक्षक स्व. मुकंदीलाल ने लिखा है कि- गढ़वाल के लोग स्वभाव से रौतिला या रोमांटिक होते हैं। वे किसी भी घटना या दुर्घटना पर चट से गीत रच देते हैं। इस बात में सत्यता है कि क्योंकि उत्तराखंड के पहाड़ों में लोक कलाकारों द्वारा अपने समय की बड़ी और अहम घटनाओं पर काफी गीत रचे गए।